»»»»»»पुरुषसूक्त और उसकी उपादेयता««««««««« |
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»»»»»»»पुरुषसूक्त और उसकी उपादेयता«««««««««
पुरुष परमात्मा का एक प्रसिद्ध नाम है । पूर्षु = सर्वशरीरेषु =सम्पूर्ण जीवों के शरीर में ,शेते= जो शयन करता है ,इति पुरुषः = उस परमात्मा को पुरुष कहते हैं । इस पुरुष नामक परमात्मा से बड़ा कोई भी नही है और वही सभी जीवों का आश्रय है--ऐसा कठोपनिषद् का उद्घोष है --पुरुषान्न परं किञ्चित् सा काष्ठा सा परा गतिः । --अध्याय 1/वल्ली 3/मन्त्र11,गोस्वामी तुलसीदास जी के मानस में ---
"पुरुष प्रसिद्ध प्रकाशनिधि प्रगट परावर नाथ ।
रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिव नायउ माथ" ।। ---बालकाण्ड,दोहा-116, शिव जी ने सती जी को श्रीराम का परिचय इसी प्रसिद्ध औपनिषद पुरुष के रूप में दिया है । और(पुरुषान्न परं किञ्चित्) उनसे बड़ा कोई भी नही है --इस रहस्य को खोलने के लिए 'परमानन्द "परेस" पुराना'।। -- दोहा -116/8, में परेस शब्द का प्रयोग किया । जिसका अर्थ है--पर =अपने से भिन्न जो प्रकृति और जीववर्ग है उन दोंनो का , ईस = स्वामी । परयोः ईशः = परेशः ,हिन्दी में परेस। ध्यातव्य है कि इस रहस्य को सभी उपासक अपने अपने आराध्य के विषय में समझें । इसे मैं आगे विस्तार से इंगित करूंगा ।
गीता में 2 पुरुषों की चर्चा आयी है --क्षर और अक्षर। जिसमें क्षर पुरुष से प्रकृति का निर्देश भगवान् ने किया है---क्षरः सर्वाणि भूतानि --15/16, अक्षरका अर्थ है --अविनाशी --न क्षरति इति अक्षरः । न=नही, क्षरति =विनष्ट होता है जो ,अर्थात् आत्मतत्त्व ।
यह आत्मा भी दो प्रकार का है । 1--जीवात्मा , 2--परमात्मा । यह परमात्मा सम्पूर्ण प्रकृति (क्षर) और समस्त जीवों (अक्षर) का स्वामी है। अतः इनसे यह श्रेष्ठ है । अत एव इसे उत्तम पुरुष कहा गया और जीवों से भिन्न समझने के लिए परमात्मा शब्द से अभिहित किया गया ---उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः---गीता--15/17, जीवों से इसे उत्कृष्ट बतलाने के लिए ही महान् (महत्) शब्द के विशेषण से संयुक्त करके कहा गया कि मैं इसे जानता हूं ----वेदाऽहमेतं पुरुषं महान्तम् । ---श्वेताश्वतरोपनिषद्अ03/मन्त्र8. इस परमात्मतत्त्त का ही चिन्तन, मनन स्मरण करके जीव मुत्यु (संसाररूपी शोकसागर) का अतिक्रमण कर सकता है,मोक्षप्राप्ति के लिए इसके अतिरिक्त अन्य कोई भी साधन नही है ---तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽनाय---श्वेताश्वतरोपनिषद्--3/8.
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इसी परमात्मा को सम्पूर्ण प्राणियों के अन्दर प्रविष्ट होने के कारण पुरुष कहा गया है । वेदों में इसे ब्रह्म, आत्मा ,परमात्मा, देव,राम, कृष्ण, हर, नारायण, गणपति ,दुर्गा,सत्,असत् आदि नामों से कहा गया है । इसीलिए --"एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति" --इस ऋचा से इस तथ्य को उद्घाटित किया गया । फिर भी संकीर्ण मानसिकता से ग्रस्त लोग घण्टाकर्ण राक्षस जैसी भक्ति तो नही पर राक्षसपना जरूर करते हुए परस्पर लड़ते रहते हैं । हमारी उपासना की पूर्णता तभी होगी जब सर्वत्र हमारा उपास्य ही हमें दिखेगा । तभी वह राजसी राजमहल के पत्थर के खम्भे से प्रकट होकर दुर्दान्त दैत्य को विदीर्ण कर सकता है । तभी हमें अग्नि शीतल लग सकती है ,तभी हम दैत्य जैसे कुल में जन्म लेकर भी प्रह्लाद बन सकते हैं । अपने पूर्वजों की क्या बात समग्र जगत् को पवित्र कर सकते हैं ,ब्रज गोपियां इसी स्तर की थीं ,तभी तो साक्षात् बृहस्पति जी के शिष्य उद्धव जी ने कहा कि मैं ब्रज गोपियों के चरणरज की वन्दना करता हूं जिनके मुख से निःसृत हरिकथामृत तीनों लोकों को पवित्र कर रहा है । --भागवत---10/47/63,
तात्पर्य यह कि कोई भी उपासक या उपासिका जो अपने आराध्य को सर्वत्र देखे वही सर्वश्रेष्ठ है । यही विभिन्नरूपों में एक देववाद है। यही वैदिक सनातन धर्म है ,यही शैव,वैष्यणव,शाक्त,गाणपत्य सिद्धान्त है यही वास्तविकता है और यही सत्य है । अतः इस पुरुषसूक्त से सभी देवों की उपासना सम्पन्न हो सकती है । और उपासक ऐसा करते भी है । अस्तु ।
वेदों में पुरुषसूक्त भिन्न भिन्न स्थलों में मिलते हैं जिनका उल्लेख किया जा रहा है --
1--ऋग्वेद अष्टक 8,मण्डल 10,अध्याय 4, वर्ग 17,अनुवाक 7, सूक्त 90,
2 --शुक्ल यजुर्वेद,काण्वसंहिता ,अध्याय 35,अनुवाक 1
3 ---कृष्ण यजुर्वेद, तैत्तिरीय आरण्यक,प्रश्न 3,अनुवाक 12, इस पुरुष सूक्त में 18 मन्त्र हैं ।
4--सामवेद, जैमिनीय शाखा( संहिता आरणम् खण्ड 3, ऋक् 6-10, 4खण्ड1,2, इस पुरुष सूक्त में 7 मन्त्र हैं ।
5--सामवेद,जैमिनीय तलवकार शाखा , ,खण्ड 8,साम 10-16, यहां भी 7 ही मन्त्र हैं ।
6-- सामवेद, कौथुम शाखा--इसमे 6 मन्त्रों का पुरुषसूक्त है ।
इसी में अन्यत्र भी 6 मन्त्रों का ही पुरुष सूक्त है । इसकी गान पद्धति भिन्न है ।
7--अथर्ववेद शौनकसंहिता, काण्ड 19, अनुवाक 1, सूक्त 6,
8--अथर्ववेद --पैप्पलाद संहिता 9-5
इस तरह अनेक स्थलों में पुरुषसूक्त मिलते हैं , फिर भी मैने शुक्ल यजुर्वेद का ही पुरुष सूक्त व्याख्या करने के लिए चुना है । यद्यपि ब्रह्मा जी आत्मनिवेदन भक्तिरूप मानस नरमेध यज्ञ से पुरुष (परमात्मा ) द्वारा जो शक्ति प्राप्त करके सृष्टि किये हैं उस यज्ञ के सम्पादन का क्रमिक वर्णन जैसा कृष्ण यजुर्वेद के पुरुष सूक्त का है वैसा शुक्ल यजुर्वेदीय पुरुष सूक्त का नही है । तथापि "कलौ माध्यन्दिनी शाखा"( कलियुग में माध्यन्दिनी शाखा की प्रधानता है ) तथा बृहत् पराशर स्मृति एवं सनत्कुमार संहिता में इस शुक्ल यजुर्वेदीय पुरुष सूक्त द्वारा ही न्यास करने का विधान होने से और कृष्ण यजुर्वेदीय पुरुष सूक्त की अपेक्षा इसका अधिक पठन पाठन होने से भी मैंने व्याख्या के लिए इसे ही चुना है ।
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यह व्याख्या वर्तमान काल की सामाजिक स्थिति को ध्यान में रखकर की गयी है । इसमें सप्रमाण इस बात पर बल दिया गया है कि आत्मनिवेदन भक्ति ही ब्रह्मा जी द्वारा किया गया मानस नरमेध यज्ञ है और इसमें मानवमात्र का अधिकार है । जाति पांति के आधार पर भगवान् ने इस भक्ति में किसी वर्गविशेष को आरक्षण नही दे रखा है । इससे सभी आत्मकल्याण कर सकते हैं । किस मन्त्र में किस विषय का प्रतिपादन है --इस रहस्य का उद्घाटन उस उस मन्त्र की व्याख्या से ही स्पष्ट होगा ।
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