Thursday, 28 November 2013

HOMAGE TO SHRI TRIDANDI DEV SAMADHI ASTHAL


SHRI VIGRAH OF SHRI TRIDANDI SWAMIJI MAHARAJ AT SAMADHI STHAL 

HOMAGE TO SAMADHI ASTHAL


o pious samadhisthal ! o shri tridandi deo dhaam ! how one poor ignorant and incapable can describe your glory ? becuse at sidhaashram (buxar) this is the unique place of gravitation for innumerable mortals fed upon the milk o kindness of a motherly acharya .with an emerged magnificient temple with the fitness of south indian style a unique trinity is completed having self revealed lord lakshminarayan at one corner – lord vaikunthnath at the secound corner and samadhi temple of pujay pad anant shribhushit tridandi swamiji maharaj at third corner ..

SAMADHI STHAL 


unequal  in purity unparallelleled in history – it will remain unequal till the earth survives as herein rests the life of lives, heart o hearts , a kaya or vigrah of religion itself . here is a scene, powerfullto melt any heart . beside the samadhiasthal, the ganga full of sobbing is flowing slowly echoing sorrow and sadness over deprivation of a long run company of a saint – whose boldness of character is as the himalayas devotion as deep as the pacific ocean, kindnesscooler than the soothing moon light ,. tapashya brighter than the sunshine , teeja more dazzling than the fire flames , forgiveness having its own desing , matching that of mother sitajee alone .

o samadhiasthal ! yours are fortunate enough as you shall sparkle with the rays of pujyapad shri swamiji maharaj for ever


you are our saptapuri and dham of dharma . i am bowed in revernce to you 


JAI SHRIMAN NARAYAN 

DASANUDAS 

almum

क्या लिखो मुझे नही पता , कहा से लिखो यह समझ नही आरहा है , by shridhar mishra

mere gurudev jagadacharya shri tridandi swamiji maharaj 

क्या लिखो मुझे नही पता , कहा से लिखो यह समझ नही आरहा है , 


आज से करीब तेरह साल पहले दास के गुरुदेव और वैष्णव कुल दिवाकर जगदाचार्य श्री त्रिदंडी स्वामीजी महाराज का वैकुण्ठ वास दिनांक :२/१२/१९९९ को सुबह ९ बजे गुरूवार के दिन हो गया था ।


आज भी जब वो समय याद आता है तो क्या करो क्या कहो किस्से कहो कुछ समझ नही आता । शब्द कोष के शब्द कम पड जाते है, शब्द मुझे कोसने लगते है और कहते है कि अरे मुर्ख हमारे अंदर इतना समर्थ नही है जो उनके जीवन चरित्रामृत कि व्याख्या कर सके और लेखनी काम करना बंद कर देती है और डाटती है कि मेरे अंदर इतना बल नही है कि उनकी अनंत जीवन चरित्रामृत को लिख सको। तो बुद्धि विवेक कम करना बंद कर देते है और फिर एक चीज रेह जाती है और जिस्के कारण यह साँसे चल रहे है वो कषायम यगसूत्रम् का अनुशंधान। 


आइये कुछ अपनी सोच आपके सामने रखता हु : 


सोचता था कि क्या पता स्वामीजी के परमपद होनेके बाद यह पापो से युक्त शारीर कैसे चलेगा ? 


सोचता था कि अब कौन है जो बिना कहे हे मेरी सारी समश्याओं का समाधान कर देगा 


सोचता था कि कौन अब हम जैसे पतिको के पाप को आपने नेत्रो से रंच मात्र देख कर हर लेगा 


सोचता था कि अब कैसे जग मग जग मग कि गुंजारमय धवनि से भूमण्डल पवित्र होगा 


सोचता था कि अब किस्को सस्टांग परणाम करूँगा 


अब उन यतिराज का दर्शन कैसे होगा 


परन्तु इतना सोचने के बाद मुझे अपने आप से द्वेष हो गया कि मै कितना मुर्ख हु , कि इतना सा नही समझ सका कि स्वामीजी का पंचतत्वों से बना शारीर हे पंचतत्वों मे विलीन हुआ है श्री स्वामीजी महाराज तो आज भी दास के वक्ष गुहा मेंविराज मान हृदये में विराजमान है। 


मेंकितना मुर्ख था कि यह सोच लिए क्युकी स्वामीजी महराज आज भी अपने सारे भक्तो को उसी प्रकार दर्शन देते है समाधी स्थल इसका प्रमाण है। समाधी स्थल में स्वामीजी कि दिव्यज्योति के दर्शन आज भी होते है और जब तक यह भू देवी का अखंड साम्राजय है तब तक देते रहेंगे। 


भक्तजन पूछते है कि स्वामीजी महाराज के उत्तराधिकारी कौन है ? 


मेरे मत यह है कि क्या कोई स्वामीजी महाराज का उत्तराधिकारी बनने योग्य है ?? क्या इस धरा धाम पर कोई ऐसा समर्थ रखता है जो उनका उत्तराधिकारी बन सके। .... तो इसका जवाब होगा नही , क्युकी वो महान विभूति थे। इसके लिए उनका स्वम दुबारा अवतार लेना होगा अन्यथा नही। 


परन्तु हा स्वामीजी के गुणो के उत्तराधिकारी तो नही परन्तु उत्तराधिकारी जैसे उनके अमोघ बालक अवशय है जैसे :


स्वामी जी के पीठ एवं योग के अधिकारी वैकुण्ठ वासी जगद्गुरु योगिराज श्री देवनायाकचार्य स्वामीजी महाराज (वर्तमान में जगद्गुरु राजगोपालाचार्य त्यागी जी महाराज )


स्वामीजी के विद्या के अधिकार जगतगुरु वासुदेवाचार्य विद्याभास्कर स्वामीजी महाराज 


स्वामीजी के भक्ति एवं धर्मप्रचार के अधिकारी जगद्गुरु राजनारायणाचार्य स्वामीजी महाराज 


स्वामीजी के वासल्यता ,त्याग के अधिकारी श्री लक्ष्मी प्रपन्न जीयर स्वामीजी महाराज 


स्वामीजी के यज्ञ आदि अनुष्ठान के आचार्य , श्री उमेश प्रसाद उपाध्याय जी 


और 


आत्मविजातो पुत्रः के सिद्धांत से स्वामीजी के सारे शिष्य मंडली भक्त मंडली उनकी उत्तराधिकारी है। . 


स्वामीजी हमारे माध्याम से इस धरा धाम पर है क्युकी वो हमारे पिता थे(गुरु होने के कारण) और हैम उनके संतान। 


आज स्वामीजी महाराज की पुण्य तिथि है और नही लिखने का समर्थ है बस एक स्लोक लिख रहा हु


न द्रिष्ठ्स्ते स्वामिन् क्वचिदपि विरामो निजजने |


अकस्मात् किं जातं विरतिरभवत् लोकशरणौ || 


जगद् भ्रामं भ्रामं कुशिकतनयस्याश्रमभुवि |


प्रलीनः संजातः स्जनजगतो दुःखशमनः||


जय श्रीमन्नारायण 


स्वामीजी का अमोघ बालक 


पंडित श्रीधर मिश्र 

दिल्ली 

An extraordinary & incomparable tribute in the divine feet of Pujniya shri tridandi Swamiji Maharaj i

jagadacharya shri tridandi swamiji maharaj at my home temple 

भारतवर्ष के महान साधक महायोगी जगदाचार्य श्रीमद विश्वकसेनाचार्य श्री श्री त्रिदंडी स्वामीजी महाराज कि पुण्यतिथि पर विशेष :


An extraordinary & incomparable tribute by Sri Jagdish Prasad in the divine feet of Pujniya Swamiji Maharaj in the year Vikram Samvat 2049..
...

"
With the best of reverence and unexpressible gratitude

Dedicated to Sri Swamiji

The Death of Deaths
&
The Destroyer of Graves

Hail Thee!

Shrine of Purity & Sacrifice,
Free from all averice & vice
Thou art the ocean, i a wave
From tidal woes myself thou save.

Thou art the sun, I a ray,
For ceaseless help, I always pray. 
Thou the eternal parents, I a child
Rescue me O Mildest of the Mild.

The Unfailing guide, the best of friend,
The worst of times, immediately mend.

O Holiest of the Holy !
At Thy Lotus feet lies,
The lowliest of the lowly,
O Listen to Jagdish's Cries.

A Poem by Jagdish Prasad Pandey,Professor, Department of English, Maharaj College, Ara, Bihar

Wednesday, 27 November 2013





jagadacharya shri tridandi swamiji maharaj (buxar,bihar)



भारतवर्ष के महान साधक महायोगी जगदाचार्य श्रीमद्विश्वकसेनाचार्य श्री श्री त्रिदंडी स्वामीजी महाराज कि पुण्यतिथि पर विशेष :




के हमनी के नव चलाई 

सब दिन अभिनन्दन किये तनमन से हर्षाय 
अबरी श्राद्धांजलि करत असुवन पुष्प चढ़ाय |
दो हजार छपन संवत , दशमी तिथि गुरूवार 
मार्ग शीर्ष कृष्ण नव बजे स्वामी तजे संसार ||१ 

अईसन संत न अब कोई मिलिहै सारे जग जगती में खोजिआउ भाई |
यति धर्म श्रुति निष्ठ जीवन वितवले पयोवृति नदी तट कुटीया छवाई ||
ग्राह का सवार कभी शेषफन सिर पे छिपी गइली हमनी के कुअर कंधाई||२

कितने ही याचक के कईली अयाचक 
अपने रहली शिवापति नाई |
जाके कल पग में नही पनही ताके वायुयान चढ़ाई|| 
ये विश्वामित्र प्रकट भये कलि मे 
यति चक्र चूरामणि जग में कहाई ||३ 

आजो चरित्र वन पावन गंगा तट 
आपके को स्वामीजी समाधी में छिपाइ | 
आर्थ धरम काम मोक्ष के बतईहे
शेषावतार शेष विवर समाई |
सबके नयन भरल बाटे असुवन 
स्वामी सुधि आवत सबको रुलाई ||४ 


साभार :शेधेश्वर पाठक जी , ग्राम बबुआ पलामू (बिहार ) 

Monday, 25 November 2013

ishwaar ka swaroop


aacharya upadesh



बक्सर की पञ्चकोसी परिक्रमा (दिनांक २२ से २६ नवंबर २०१३)

बक्सर एक ऐतिहासिक,सांस्कृतिक, पौराणिक तथा वैदिक तीर्थ है। इसे पुराणों में अनेक नामों से स्मरण किया गया है। वास्तव में बक्सर व्याघ्रसर का अपभ्रंश शब्द है। प्रसिद्ध व्याघ्रसर को क्षेत्रीय लोग बाघसर या बगसर कहा करते थे। इसका रूप मुग़ल काल में बगसर से बक्सर बन गया। सतयुग का सिद्धाश्रम, त्रेता का वामनाश्रम, द्वापर का वेदगर्भापुरी कलियुग में व्याघ्रसर नाम से प्रचलित हुआ। बक्सर पतित पावनी गंगा के पावन दक्षिण तट पर अवस्थित है। बक्सर के पांच कुण्ड, पांच ऋषि तथा पांच शिवलिंग दर्शनीय है। विश्राम कुंड, व्याघ्रसर पुष्करिणी, श्रीरामह्रद रामरेखा घाट, श्री वामन कुंड (गंगा ठोरा संगम) तथा श्री विश्वामित्रह्रद ये पांचो कुंड हैं। रामेश्वर, संगमेश्वर, सोमेश्वर, चित्ररथेश्वर तथा गौरी शंकर ये अनादि एवं विलक्षण शिवलिंग हैं जिनके दर्शन मात्र से मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। पांच ऋषियों में श्री गौतमाश्रम (अहिरौली), श्री नारदाश्रम (नदांव), श्री भार्गवाश्रम (भभुअर), श्री उत्तालकाश्रम (उन्वांव) तथा महर्षि विश्वामित्र यज्ञ स्थल (चरित्रवन) प्रसिद्ध हैं। तीर्थयात्री प्रथमदिन (मार्गशीर्ष पञ्चमी) को गौतमाश्रम अहिरौली, षष्ठी को नारदाश्रम नदांव, सप्तमी को भार्गवाश्रम भभुवर, अष्टमी को उत्तालकाश्रम उन्वाँव तथा नवमी को महर्षि विश्वामित्र यज्ञस्थल चरित्रवन में विश्राम करते हैं तथा लिट्टी चोखा का भगवान् को भोग लगा के प्रसाद ग्रहण करते हैं। तीर्थयात्रियों की सेवा श्री वसांव पीठाधीश्वर श्री लक्ष्मीनारायण मंदिर श्रीपति पीठाधीश्वर, श्रीनिवास मंदिर पीठाधीश्वर तथा अहिरौली में अहिरौली के मठाधीश्वर क द्वारा होती आयी है। वर्तमान में श्री त्रिदंडी स्वामी समाधि मन्दिर तथा श्री सीताराम विवाह स्थल नयी बाज़ार बक्सर के महापुरुष भी सेवा में संलग्न दीखते हैं। बक्सर की परिक्रमा अवश्य करनी चाहिए। बिहार एवं उत्तर प्रदेश की सीमा पर अवस्थित बक्सर रेल अथवा सड़क मार्ग से सुगम्य है। महयोगिराज जगदाचार्य श्रीमद्विश्वकसेनाचार्य श्री त्रिदण्डी द्वारा
विरचित सिद्धाश्रम (बक्सर) महात्म्य ग्रन्थ देखना चाहिए। बक्सर के दर्शनीय स्थल श्री लक्ष्मीनारायण मंदिर, श्री वैकुण्ठनाथ मन्दिर, श्री श्रीनिवास मन्दिर, श्री रामानुजकोट, श्री त्रिदंडीदेव समाधी स्थल, श्री विश्वामित्र आश्रम, श्रीराम चबूतरा इसके अलावा श्री सीताराम विवाह स्थल नईबाजार, श्री प्रसन्न राघव मंदिर , श्री वसाव मठ (स्टेशन रोड) श्री रामरेखा घाट, श्री सिद्धनाथ मंदिर इत्यादि हैं। इसी बक्सर में पूर्ण सनातन ब्रह्म भगवान् विष्णु का अवतार वामन रूप में हुआ था तथा भगवान् विष्णु ही श्री अयोध्या में रामरूप धारण कर के अपनी प्रथम विजय यात्रा बक्सर कि की थी तथा आतंकवादिनी ताटका तथा सुबाहु का वध किया था।

-- रा. राजनारायणाचार्य
भक्ति वाटिका देवरिया

jag mag jag mag jyoti jagi hai..aarti of jagadacharya shri tridandi swamiji maharaj

jagadacharya shri tridandi swamiji maharaj ki aarti .. 

upadesh





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अहमस्मि तवैवेति प्रपन्नाय सकृत् स्वयम् |

देवो नारायणो श्रीमान् ददात्यभयमुत्सुकः ||

(नारद पांचरात्र न्यासोप्देशो (१/११)


भगवान् श्रीमान्नारायण के प्रति प्रपन्न भाव से एक बार भी " हे प्रभु 

! में तो आप ही का दास हु " कहकर स्वयं को न्यस्त कर दे तो 

भगवान् स्वयं ही करुणावश भक्त के प्रति उत्सुक होकर उसे अभय 

प्रदान कर देते है 


(नोट : न्यास = प्रपति )


जय श्रीमन्नारायण 


पंडित श्रीधर मिश्र 

अध्यक्ष 

श्री त्रिदंडी देव वैदिक संस्थान 

०९९५८७८७११४






Tuesday, 19 November 2013

पुरुषसूक्त और उसकी उपादेयता


               

               »»»»»»पुरुषसूक्त और उसकी उपादेयता«««««««««

jagadacharya shri tridandi swamiji maharaj 

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                »»»»»»»पुरुषसूक्त और उसकी उपादेयता«««««««««

पुरुष परमात्मा का एक प्रसिद्ध नाम है । पूर्षु = सर्वशरीरेषु =सम्पूर्ण जीवों के शरीर में ,शेते= जो शयन करता है ,इति पुरुषः = उस परमात्मा को पुरुष कहते हैं । इस पुरुष नामक परमात्मा से बड़ा कोई भी नही है और वही सभी जीवों का आश्रय है--ऐसा कठोपनिषद् का उद्घोष है --पुरुषान्न परं किञ्चित् सा काष्ठा सा परा गतिः । --अध्याय 1/वल्ली 3/मन्त्र11, 
गोस्वामी तुलसीदास जी के मानस में ---
"पुरुष प्रसिद्ध प्रकाशनिधि प्रगट परावर नाथ । 
रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिव नायउ माथ" ।। ---बालकाण्ड,दोहा-116, शिव जी ने सती जी को श्रीराम का परिचय इसी प्रसिद्ध औपनिषद पुरुष के रूप में दिया है । और(पुरुषान्न परं किञ्चित्) उनसे बड़ा कोई भी नही है --इस रहस्य को खोलने के लिए 'परमानन्द "परेस" पुराना'।। -- दोहा -116/8, में परेस शब्द का प्रयोग किया । जिसका अर्थ है--पर =अपने से भिन्न जो प्रकृति और जीववर्ग है उन दोंनो का , ईस = स्वामी । परयोः ईशः = परेशः ,हिन्दी में परेस। ध्यातव्य है कि इस रहस्य को सभी उपासक अपने अपने आराध्य के विषय में समझें । इसे मैं आगे विस्तार से इंगित करूंगा । 
गीता में 2 पुरुषों की चर्चा आयी है --क्षर और अक्षर। जिसमें क्षर पुरुष से प्रकृति का निर्देश भगवान् ने किया है---क्षरः सर्वाणि भूतानि --15/16, अक्षरका अर्थ है --अविनाशी --न क्षरति इति अक्षरः । न=नही, क्षरति =विनष्ट होता है जो ,अर्थात् आत्मतत्त्व । 
यह आत्मा भी दो प्रकार का है । 1--जीवात्मा , 2--परमात्मा । यह परमात्मा सम्पूर्ण प्रकृति (क्षर) और समस्त जीवों (अक्षर) का स्वामी है। अतः इनसे यह श्रेष्ठ है । अत एव इसे उत्तम पुरुष कहा गया और जीवों से भिन्न समझने के लिए परमात्मा शब्द से अभिहित किया गया ---उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः---गीता--15/17, जीवों से इसे उत्कृष्ट बतलाने के लिए ही महान् (महत्) शब्द के विशेषण से संयुक्त करके कहा गया कि मैं इसे जानता हूं ----वेदाऽहमेतं पुरुषं महान्तम् । ---श्वेताश्वतरोपनिषद्अ03/मन्त्र8. इस परमात्मतत्त्त का ही चिन्तन, मनन स्मरण करके जीव मुत्यु (संसाररूपी शोकसागर) का अतिक्रमण कर सकता है,मोक्षप्राप्ति के लिए इसके अतिरिक्त अन्य कोई भी साधन नही है ---तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽनाय---श्वेताश्वतरोपनिषद्--3/8.

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इसी परमात्मा को सम्पूर्ण प्राणियों के अन्दर प्रविष्ट होने के कारण पुरुष कहा गया है । वेदों में इसे ब्रह्म, आत्मा ,परमात्मा, देव,राम, कृष्ण, हर, नारायण, गणपति ,दुर्गा,सत्,असत् आदि नामों से कहा गया है । इसीलिए --"एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति" --इस ऋचा से इस तथ्य को उद्घाटित किया गया । फिर भी संकीर्ण मानसिकता से ग्रस्त लोग घण्टाकर्ण राक्षस जैसी भक्ति तो नही पर राक्षसपना जरूर करते हुए परस्पर लड़ते रहते हैं । हमारी उपासना की पूर्णता तभी होगी जब सर्वत्र हमारा उपास्य ही हमें दिखेगा । तभी वह राजसी राजमहल के पत्थर के खम्भे से प्रकट होकर दुर्दान्त दैत्य को विदीर्ण कर सकता है । तभी हमें अग्नि शीतल लग सकती है ,तभी हम दैत्य जैसे कुल में जन्म लेकर भी प्रह्लाद बन सकते हैं । अपने पूर्वजों की क्या बात समग्र जगत् को पवित्र कर सकते हैं ,ब्रज गोपियां इसी स्तर की थीं ,तभी तो साक्षात् बृहस्पति जी के शिष्य उद्धव जी ने कहा कि मैं ब्रज गोपियों के चरणरज की वन्दना करता हूं जिनके मुख से निःसृत हरिकथामृत तीनों लोकों को पवित्र कर रहा है । --भागवत---10/47/63, 
तात्पर्य यह कि कोई भी उपासक या उपासिका जो अपने आराध्य को सर्वत्र देखे वही सर्वश्रेष्ठ है । यही विभिन्नरूपों में एक देववाद है। यही वैदिक सनातन धर्म है ,यही शैव,वैष्यणव,शाक्त,गाणपत्य सिद्धान्त है यही वास्तविकता है और यही सत्य है । अतः इस पुरुषसूक्त से सभी देवों की उपासना सम्पन्न हो सकती है । और उपासक ऐसा करते भी है । अस्तु । 
वेदों में पुरुषसूक्त भिन्न भिन्न स्थलों में मिलते हैं जिनका उल्लेख किया जा रहा है --
1--ऋग्वेद अष्टक 8,मण्डल 10,अध्याय 4, वर्ग 17,अनुवाक 7, सूक्त 90,

2 --शुक्ल यजुर्वेद,काण्वसंहिता ,अध्याय 35,अनुवाक 1
3 ---कृष्ण यजुर्वेद, तैत्तिरीय आरण्यक,प्रश्न 3,अनुवाक 12, इस पुरुष सूक्त में 18 मन्त्र हैं । 

4--सामवेद, जैमिनीय शाखा( संहिता आरणम् खण्ड 3, ऋक् 6-10, 4खण्ड1,2, इस पुरुष सूक्त में 7 मन्त्र हैं । 
5--सामवेद,जैमिनीय तलवकार शाखा , ,खण्ड 8,साम 10-16, यहां भी 7 ही मन्त्र हैं । 
6-- सामवेद, कौथुम शाखा--इसमे 6 मन्त्रों का पुरुषसूक्त है ।
इसी में अन्यत्र भी 6 मन्त्रों का ही पुरुष सूक्त है । इसकी गान पद्धति भिन्न है । 

7--अथर्ववेद शौनकसंहिता, काण्ड 19, अनुवाक 1, सूक्त 6,
8--अथर्ववेद --पैप्पलाद संहिता 9-5
इस तरह अनेक स्थलों में पुरुषसूक्त मिलते हैं , फिर भी मैने शुक्ल यजुर्वेद का ही पुरुष सूक्त व्याख्या करने के लिए चुना है । यद्यपि ब्रह्मा जी आत्मनिवेदन भक्तिरूप मानस नरमेध यज्ञ से पुरुष (परमात्मा ) द्वारा जो शक्ति प्राप्त करके सृष्टि किये हैं उस यज्ञ के सम्पादन का क्रमिक वर्णन जैसा कृष्ण यजुर्वेद के पुरुष सूक्त का है वैसा शुक्ल यजुर्वेदीय पुरुष सूक्त का नही है । तथापि "कलौ माध्यन्दिनी शाखा"( कलियुग में माध्यन्दिनी शाखा की प्रधानता है ) तथा बृहत् पराशर स्मृति एवं सनत्कुमार संहिता में इस शुक्ल यजुर्वेदीय पुरुष सूक्त द्वारा ही न्यास करने का विधान होने से और कृष्ण यजुर्वेदीय पुरुष सूक्त की अपेक्षा इसका अधिक पठन पाठन होने से भी मैंने व्याख्या के लिए इसे ही चुना है । 

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यह व्याख्या वर्तमान काल की सामाजिक स्थिति को ध्यान में रखकर की गयी है । इसमें सप्रमाण इस बात पर बल दिया गया है कि आत्मनिवेदन भक्ति ही ब्रह्मा जी द्वारा किया गया मानस नरमेध यज्ञ है और इसमें मानवमात्र का अधिकार है । जाति पांति के आधार पर भगवान् ने इस भक्ति में किसी वर्गविशेष को आरक्षण नही दे रखा है । इससे सभी आत्मकल्याण कर सकते हैं । किस मन्त्र में किस विषय का प्रतिपादन है --इस रहस्य का उद्घाटन उस उस मन्त्र की व्याख्या से ही स्पष्ट होगा । 


आचार्य सियारामदास नैयायिक 

Monday, 18 November 2013

shri vishwaksen

shri vishwalsen swaroopaam




सर्वेषा पार्षदानां प्रबलतरबलों योऽगर्गण्यो महात्मा यस्याजां नागवक्त्रप्रमुख सुरगण धारयन्त्याशु मूध्र्र्धा |विष्वक्सेनोरुतेजा हरीमुखगणान् मर्ध्ययन् सर्वदेशे लोकानां सौख्यकर्ता जयति कारुणया विघ्नहन्ता समन्तात ||

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वैकुण्ठ के समस्त पार्षद में अत्यंत प्रबल बलवान और अग्रगण जो अनंत तेजस्वी श्री विष्वक्सेन महात्मा है ,उनकी आज्ञा से गजानन प्रभृति समस्त देवगण शीघ्रता पूर्वक मस्तक झुकाकर पालन करते है | वे सेनापति सब देश में भगवद विमुख गण को मर्धन करते हुए और भक्त जनों के करुणा से चारो तरफ से विघ्न का नाश करते हुए तथा सुख प्रदान करते हुए विजय हो |
श्री विष्वक्सेन जी के विषय में लिखा है की 

अविदुरेथ देवस्य प्रागुदोच्यां वरासने | 
असिनं नीलमेघां शंखचक्रगदाधरम् || (आहिंक कारिका २६० )

भगवान् के निकट पूर्वोतर की और सुंदर आसन पर विराजमान भगवान् के सेनापति श्री विष्वक्सेन का ध्यान करे जिनकी कांती नील मेघ के समान है जो शंख चक्र और गदा के समान यानि वेत का दंड धारण किये है ||

पीतको शेय वसन चारूपद्म लेक्षणम 
उर्ध्वलक्षिततर्जन्या साज्ञया ससुरासुरान् ||(२६१)

पीताम्बर धारण किये है तथा सुंदर लाल कमल के समान जिनके नेत्र है ऊपर उठी हुई ऊँगली मुद्रा के संकेत से देवो तथा असुरो का नियमन करते है ||
और समस्त लोको का शासन करते है उनकी दक्षिण पार्श्व में उनकी प्रिया श्री सुत्रवती का ध्यान करे (२६२)

उनके चारो और स्थित १.गजानन २. जयत्सेन ३ हरीवक्त्र और ४.काल प्रकृति इन चारो चमूपतियों का ध्यान करे (२६३)

पौष्कर का प्रश्न है की :
यह अतुल्निय विर्शाली कौन है जिनकी उपस्थित होते ही त्रिलोकी को नष्ट कर सकने वाले विघ्न पल भर में दूर चले जाते है (इस्वर संहिता ८ /७६ )

इस का उतर है 


सम्राज्यें नियुक्तेस्मिन विघ्नानामच्युतें
पूजिते विघिना शश्वद्विष्ट् साधकोऽश्नुते ||

भगवान् श्रीमन्नारायण ने उनकी नियुक्ति की सारे विघ्नों पर नियंत्रण करने के लिए | इनकी विधिवद पूजन कर के साधक निश्चित ही अपने अविष्ट को प्राप्त कर सकता है यानि अपने कर्म को निर्विघन संपन्न कर सकता है ||
और इसी कराण हमारे श्री संप्रदाय में खास कर श्री विष्वक्सेन की पूजा से ही सारे कार्य सम्पादित होते है 

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जय श्रीमन्नारायण !

पंडित श्रीधर मिश्र 

Wednesday, 13 November 2013

kashaayam yagsutram ....acharya tanaya



jagadacharya shri tridandi swamiji maharaj ki tanya 

shri swamiji maharaj ki stuti




jagadguru vasudevacharya vidyabaskar swamije maharaj

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jagadacharya shri tridandi swamijee maharaj.

http://www.youtube.com/v/FADthTWmayw?version=3&autohide=1&autohide=1&autoplay=1&attribution_tag=t8tPtGb9fOew3lakQTPGaA&showinfo=1&feature=share

शरणागति की महिमा










शरणागति की महिमा 

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शरणागति सकल फल प्रदान करने वाली है | किसी भी फल को चाहे वह सांसारिक हो या परमार्थिक चाहने वाला पुरुष सरनागति कर सकता है | भक्ति योग सकल फल देने वाला है | गीता में श्री भगवान् ने कहा है की
चतुर्विधा भजन्ते माँ जनः .......(गीता ७ /१६ )

श्री भगवान् के शरण में जाते हे मनुष्य को विशुद्ध वैक्तित्व की प्राप्ति होती है |

व्यक्ति का दुःख और शुख तब तक ही होता है जब तक वो संसारिक वस्तुओ की और आकर्षित रहता है परन्तु अगर उसकी निष्ठां उसके इष्ट के प्रति हो जाए तो उसके सर्वश दुःख शुख के अधिकारी भगवान् ही हो जाते है

जिस प्रकार माता सीता कहती है की में मन से कर्म से और वचन से श्री राम जी को ही मानती हु (मनसा कर्मणा वाचा ...(वाल्मीकि रामायण ) )

उसी प्रकार हमें मन से वचन से अपना सर्वस्य भगवान् श्रीमन्नारायण के श्री चरणों में समर्पित कर देना चाहिए |

इसके बाद ही हमें परमधाम की प्राप्ति हो सकती है |

इसे यह सिद्ध होता है की शरणागति सकल फल प्रदान करने वाली है |


जय श्रीमन्नारायण !

पंडित श्रीधर मिश्र
दिल्ली

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Tuesday, 12 November 2013

देवोत्थान एकादशी, तुलसी विवाह एवं भीष्म पंचक


देवोत्थान एकादशी, तुलसी विवाह एवं भीष्म पंचक


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Kowsalya supraja Rama poorva sandhya pravarthathe
Uthishta narasardoola karthavyam daiva mahnikam

 Uthishto Uthishta Govinda uthishta garudadhwaja
Uthishta kamala kantha thrilokyam mangalam kuru



कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी देवोत्थान, तुलसी विवाह एवं भीष्म पंचक एकादशी के रूप में मनाई जाती है। दीपावली के बाद आने वाली इस एकादशी को प्रबोधिनी एकादशी भी कहते हैं।
देवोत्थान एकादशी-
आषाढ शुक्ल एकादशी की तिथि को देव शयन करते हैं और इस कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन उठते हैं। इसलिए इसे देवोत्थान (देव उठनी) एकादशी भी कहते हैं।     
कहा जाता है कि भगवान विष्णु आषाढ़ शुक्ल एकादशी को चार माह के लिए क्षीर सागर में शयन करते हैं। चार महीने पश्चात वो कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागते हैं। विष्णुजी के शयन काल के चार माह में विवाह आदि अनेक मांगलिक कार्यों का आयोजन निषेध है। हरि के जागने के पश्चात यानी भगवान विष्णु के जागने बाद ही सभी मांगलिक कार्य शुरू किये जाते हैं।
कथा-
एक बार भगवान विष्णु से उनकी प्रिया लक्ष्मी जी ने आग्रह के भाव में कहा- हे भगवान, अब आप दिन रात जागते हैं। लेकिन, एक बार सोते हैं,तो फिर लाखों-करोड़ों वर्षों के लिए सो जाते हैं। तथा उस समय समस्त चराचर का नाश भी कर डालते हैं। इसलिए आप नियम से विश्राम किया कीजिए। आपके ऐसा करने से मुझे भी कुछ समय आराम का मिलेगा।
लक्ष्मी जी की बात भगवान को उचित लगी। उन्होंने कहा, तुम ठीक कहती हो। मेरे जागने से सभी देवों और खासकर तुम्हें कष्ट होता है। तुम्हें मेरी सेवा से वक्त नहीं मिलता। इसलिए आज से मैं हर वर्ष चार मास वर्षा ऋतु में शयन किया करुंगा। मेरी यह निद्रा अल्पनिद्रा और प्रलयकालीन महानिद्रा कहलाएगी।यह मेरी अल्पनिद्रा मेरे भक्तों के लिए परम मंगलकारी रहेगी। इस दौरान जो भी भक्त मेरे शयन की भावना कर मेरी सेवा करेंगे, मैं उनके घर तुम्हारे समेत निवास करुंगा।


तुलसी विवाह –

कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को तुलसी पूजन का उत्सव पूरे भारत वर्ष में मनाया जाता है। कहा जाता है कि कार्तिक मास मे जो मनुष्य तुलसी का विवाह भगवान से करते हैं, उनके पिछलों जन्मो के सब पाप नष्ट हो जाते हैं।
कार्तिक मास में स्नान करने वाले स्त्रियाँ कार्तिक शुक्ल एकादशी का शालिग्राम और तुलसी का विवाह रचाती है । समस्त विधि विधान पुर्वक गाजे बाजे के साथ एक सुन्दर मण्डप के नीचे यह कार्य सम्पन्न होता है। विवाह के समय स्त्रियाँ गीत तथा भजन गाती है ।
मगन भई तुलसी राम गुन गाइके मगन भई तुलसी ।
सब कोऊ चली डोली पालकी रथ जुडवाये के ।।
साधु चले पाँय पैया, चीटी सो बचाई के ।
मगन भई तुलसी राम गुन गाइके ।।
दरअसल, तुलसी को विष्णु प्रिया भी कहते हैं। तुलसी विवाह के लिए कार्तिक शुक्ल की नवमी ठीक तिथि है। नवमी,दशमी व एकादशी को व्रत एवं पूजन कर अगले दिन तुलसी का पौधा किसी ब्राह्मण को देना शुभ होता है। लेकिन लोग एकादशी से पूर्णिमा तक तुलसी पूजन करके पांचवे दिन तुलसी का विवाह करते हैं। तुलसी विवाह की यही पद्धति बहुत प्रचलित है।
शास्त्रों में कहा गया है कि जिन दंपत्तियों के संतान नहीं होती,वे जीवन में एक बार तुलसी का विवाह करके कन्यादान का पुण्य अवश्य प्राप्त करें।



भीष्म पंचक

यह व्रत कार्तिक शुक्ल एकादशी से प्रारम्भ होकर पूर्णिमा तक चलता है, लिहाजा इसे भीष्म पंचक कहा जाता है। कार्तिक स्नान करने वाली स्त्रियाँ या पुरूष निराहार रहकर व्रत करते हैं।
विधानः ”ऊँ नमो भगवने वासुदेवाय“ मंत्र से भगवान कृष्ण की पूजा की जाती है । पाँच दिनों तक लगातार घी का दीपक जलता रहना चाहिए। “ ”ऊँ विष्णुवे नमः स्वाहा“ मंत्र से घी, तिल और जौ की १०८ आहुतियां देते हुए हवन करना चाहिए।
कथाः
महाभारत का युद्ध समाप्त होने पर जिस समय भीष्म पितामह सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा मे शरशैया पर  शयन कर रहे थे। तक भगवान कृष्ण पाँचो पांडवों को साथ लेकर उनके पास गये थे। ठीक अवसर मानकर युधिष्ठर ने भीष्म पितामह से उपदेश देने का आग्रह किया। भीष्म ने पाँच दिनो तक राज धर्म, वर्णधर्म मोक्षधर्म आदि पर उपदेश दिया था । उनका उपदेश सुनकर श्रीकृष्ण सन्तुष्ट हुए और बोले, ”पितामह! आपने शुक्ल एकादशी से पूर्णिमा तक पाँच दिनों में जो धर्ममय उपदेश दिया है उससे मुझे बडी प्रसन्नता हुई है। मैं इसकी स्मृति में आपके नाम पर भीष्म पंचक व्रत स्थापित करता हूँ ।
जो लोग इसे करेंगे वे जीवन भर विविध सुख भोगकर अन्त में मोक्ष प्राप्त करेंगे।

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