वॄषभे स्वाति नक्षत्रे, चतुर्दश्यां शुभे दिने। संध्याकाले नृजेयुक्तं, स्तम्भोद् भूतो नृकेसरी।।
भगवान् नृसिंह भक्त प्रह्लाद की रक्षा हेतु वैशाख शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को गोधूलि वेला में स्तम्भ
से प्रकट हुए । और हिरण्यकशिपु के वक्षस्थल
को अपने वज्रनखों से विदीर्ण कर दिया ।
से प्रकट हुए । और हिरण्यकशिपु के वक्षस्थल
को अपने वज्रनखों से विदीर्ण कर दिया ।
इससे भगवान् भक्ति के सिद्धान्त को प्रकाशित कर रहे हैं कि --
"मेरी भक्ति करने वाला प्राणी किसी भी जाति या कुल का क्यों न हो , मैं विना भेदभाव के उसकी रक्षा करता हूं ।"
भगवान् की भक्ति में जाति,विद्या,किसी पद की महत्ता,रूप और युवा अवस्था का अभिमान बाधक है--
"जातिविद्यामहत्त्वं च रूपयौवनमेव च ।
यत्नेन तु परित्याज्या पञ्चैते भक्तिकण्टकाः ॥"
यत्नेन तु परित्याज्या पञ्चैते भक्तिकण्टकाः ॥"
प्रहलाद जी के भागवत में वर्णित चरित्र से ये तथ्य परिलक्षित होते हैं ।
भगवान् नृहरि स्तम्भ से अपने भक्त प्रह्लाद की वाणी मुख्यतया सत्य सिद्ध करने के लिए प्रकट हुए ;क्योंकि हिरण्यकशिपु ने कहा था कि यदि तुम्हारा ईश्वर सर्वत्र है तो खम्भे में क्यों नही दिखता ? --
"क्वासौ यदि स सर्वत्र
कस्मात् स्तम्भे न दृश्यते ॥"
--भागवत--7/8/13,
कस्मात् स्तम्भे न दृश्यते ॥"
--भागवत--7/8/13,
आज मैं तेरा शिर धड़ से अलग कर देता हूं । देखता हूं
वह कैसे तेरी रक्षा करता है ?
वह कैसे तेरी रक्षा करता है ?
और अपने इस कार्य को मूर्तरूप देने के लिए खड्ग लेकर कूद पड़ा तथा मुष्टिक से स्तम्भ में प्रहार किया--
"स्तम्भं तताडातिबलः स्वमुष्टिना॥"--7/8/15,
भगवान् भक्त की वाणी सत्य सिद्ध करने एवं सर्वत्र अपनी व्यापकता दिखाने हेतु नृसिंह रूप में स्तम्भ से प्रकट हो गये --
"सत्यं विधातुं निजभृत्यभाषितं
व्याप्तिं च भूतेष्वखिलेषु चात्मनः ।
अदृश्यतात्यद्भुतरूपमुद्वहन्
स्तम्भे सभायां न मृगं न मानुषम् ॥"
--भा.7/8/18,
व्याप्तिं च भूतेष्वखिलेषु चात्मनः ।
अदृश्यतात्यद्भुतरूपमुद्वहन्
स्तम्भे सभायां न मृगं न मानुषम् ॥"
--भा.7/8/18,
।।लक्ष्मी नृसिंह स्तोत्रम्।।
श्रीमत्पयोनिधिनिकेतन चक्रपाणे भोगीन्द्रभोगमणिरंजितपुण्यमूर्ते।
योगीश शाश्वतशरण्यभवाब्धिपोतलक्ष्मीनृसिंहममदेहिकरावलम्बम॥1॥
ब्रम्हेन्द्र-रुद्र-मरुदर्क-किरीट-कोटि-संघट्टितांघ्रि-कमलामलकान्तिकान्त।
लक्ष्मीलसत्कुचसरोरुहराजहंस लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम्॥2॥
संसारघोरगहने चरतो मुरारे मारोग्र-भीकर-मृगप्रवरार्दितस्य।
आर्तस्य मत्सर-निदाघ-निपीडितस्यलक्ष्मीनृसिंहममदेहिकरावलम्बम्॥3॥
संसारकूप-मतिघोरमगाधमूलं सम्प्राप्य दुःखशत-सर्पसमाकुलस्य।
दीनस्य देव कृपणापदमागतस्य लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम्॥4॥
संसार-सागर विशाल-करालकाल-नक्रग्रहग्रसन-निग्रह-विग्रहस्य।
व्यग्रस्य रागदसनोर्मिनिपीडितस्य लक्ष्मीनृसिंह मम देहिकरावलम्बम्॥5॥
संसारवृक्ष-भवबीजमनन्तकर्म-शाखाशतं करणपत्रमनंगपुष्पम्।
आरुह्य दुःखफलित पततो दयालो लक्ष्मीनृसिंहम देहिकरावलम्बम्॥6॥
संसारसर्पघनवक्त्र-भयोग्रतीव्र-दंष्ट्राकरालविषदग्ध-विनष्टमूर्ते।
नागारिवाहन-सुधाब्धिनिवास-शौरे लक्ष्मीनृसिंहममदेहिकरावलम्बम्॥7॥
संसारदावदहनातुर-भीकरोरु-ज्वालावलीभिरतिदग्धतनुरुहस्य।
त्वत्पादपद्म-सरसीशरणागतस्य लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम्॥8॥
संसारजालपतितस्य जगन्निवास सर्वेन्द्रियार्थ-बडिशार्थझषोपमस्य।
प्रत्खण्डित-प्रचुरतालुक-मस्तकस्य लक्ष्मीनृसिंह मम देहिकरावलम्बम्॥9॥
सारभी-करकरीन्द्रकलाभिघात-निष्पिष्टमर्मवपुषः सकलार्तिनाश।
प्राणप्रयाणभवभीतिसमाकुलस्यलक्ष्मीनृसिंहमम देहि करावलम्बम्॥10॥
अन्धस्य मे हृतविवेकमहाधनस्य चौरेः प्रभो बलि भिरिन्द्रियनामधेयै।
मोहान्धकूपकुहरे विनिपातितस्य लक्ष्मीनृसिंहममदेहिकरावलम्बम्॥11॥
लक्ष्मीपते कमलनाथ सुरेश विष्णो वैकुण्ठ कृष्ण मधुसूदन पुष्कराक्ष।
ब्रह्मण्य केशव जनार्दन वासुदेव देवेश देहि कृपणस्य करावलम्बम्॥12॥
यन्माययोर्जितवपुःप्रचुरप्रवाहमग्नाथमत्र निबहोरुकरावलम्बम्।
लक्ष्मीनृसिंहचरणाब्जमधुवतेत स्तोत्र कृतं सुखकरं भुवि शंकरेण॥13॥
॥ इति श्रीमच्छंकराचार्याकृतं लक्ष्मीनृसिंहस्तोत्रं संपूर्णम् ॥
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