Saturday, 8 July 2017

नमोस्तुगुरवेतस्मैगायत्री रूपिणेसदा। यस्यवागमृतंहन्तिविषंसंसार संज्ञकं॥

गुरु पूर्णिमा विशेष

नमोस्तुगुरवेतस्मैगायत्री रूपिणेसदा। यस्यवागमृतंहन्तिविषंसंसार संज्ञकं॥

उन गुरु को नमस्कार है, जो सदा गायत्री रूप में स्थित होते हैं, जिनकी अमृत वाणी संसार रूपी विष को नष्ट कर देती है।

यह बडी सारगर्भित वन्दना है, जिसमें गुरुतत्वके प्रति श्रद्धा के साथ ही उसके स्वरूप एवं प्रभाव को भी बडी सुन्दरता के साथ व्यक्त किया गया है। इस श्लोक में चार चरण हैं-गुरु को नमन, गुरु का गायत्री रूप में स्थित होना, गुरु-वाणी अमृत स्वरूप होना, उससे संसार रूपी निन्दा का शमन होना। क्रमश:प्रत्येक चरण के भावों का समीक्षात्मक अध्ययन करें।

गुरु को नमन-गुरु अपने विषय के विशेषज्ञ होते हैं। उनसे अनुदान पाने के लिए श्रद्धा भाव आवश्यक है। गुरु केवल विधि ही नहीं बतलाते, अपनी शक्ति का, अपने प्राणों का एक अंश भी देने में समर्थ होते हैं। जिस प्रकर पानी का प्रवाह ऊपरी सतह से निचली सतह की ओर होता है, उसी प्रकार चेतना-ज्ञान का प्रवाह श्रद्धास्पद व्यक्तित्व की ओर से नमनशीलव्यक्तित्व की ओर होता है। यह सनातन नियम है। व्यक्ति में पात्रता हो, लेकिन वह नमनशीलन हो, अहंकारी हो, तो उसे कल्याणकारी ज्ञान प्राप्त होना और फलित होना असंभव हो जाता है।

यहां नमस्कार केवल शिष्टाचार वाला हो, तो काम नहीं चलेगा। उसे श्रद्धा से प्रेरित होना चाहिए। किंतु समस्या यह आ जाती है कि श्रद्धा हर जगह नहीं झुकती। गुरु में श्रद्धा को आकर्षित करने की शक्ति होनी चाहिए। यदि पाने वाले में श्रद्धा न हो, तो भी बात नहीं बनती और गुरु में श्रद्धास्पद बनने की क्षमता न हो तो भी नमन की स्थिति नहीं बन पाती। शिष्य को नमनशीलश्रद्धालु होना चाहिए, तो गुरु को भी श्रद्धास्पद होना चाहिए। गुरु कैसे होते हैं, यह बात आगे के चरणों में स्पष्ट की गयी है।

गुरु सदा गायत्री रूप हो-भारतीय संस्कृति के अनुसार गुरु तत्व को व्यक्ति रूप में भी पाया जा सकता है और शक्ति रूप में भी। दोनों ही स्थितियों में उसे गायत्री रूप में प्रतिष्ठित होना चाहिए, ऐसा आचार्य शंकर का मत है। गायत्री का अर्थ है, गय-प्राण,त्री-त्रायते,त्रण-उद्धारकरने वाली शक्ति। प्राण तत्व जब ईश्वरीय अनुशासन में बंधकर व्यक्त होता है, तो सृष्टि के विभिन्न घटक बनते हैं। सृष्टि के उद्भव का, उसे प्रकट करने का यह कार्य ईश्वर का- नियन्ता का है। जो प्राण पदार्थ के साथ संयुक्त होकर प्राणी के रूप में स्थापित हो गए, उन्हें प्राण की मुख्यधारा से जोडे रखना ही प्राणों का त्राण करना है।

जीवन की सारी क्रियाएं प्राण से ही संचालित होती हैं। प्राण में विकार आ जाने से जीवन की सभी क्रियाएं, सारा जीवन विकार ग्रस्त हो जाता है। शारीरिक-मानसिक रोग, तनाव, पाप-वृत्तियां सब इसी प्राण के विकारों की ही उपज हैं। प्राण के प्रकटीकरण का कार्य ईश-तत्व का है और उसके त्राण का कार्य गुरु तत्व का है। इसीलिए गुरु को गायत्री रूप में-प्राणों का त्राण करने वाली साम‌र्थ्य के रूप में सदैव प्रतिष्ठित रहना आवश्यक है। भारतीय संस्कृति में ऋषियों ने इसीलिए यह व्यवस्था बनाई है कि यदि व्यक्ति रूप में गुरु की प्राप्ति न हो सके, तो मन्त्र रूप-शक्ति रूप में गायत्री विद्या को गुरु मानकर आत्म-लाभ किया जा सकता है। इसीलिए अनादि काल से गायत्री मंत्र को गुरु मंत्र के रूप में ऋषियों ने प्रतिष्ठित रखा है।

संसार का विष और गुरु वचनों का अमृत- प्राणी संसार में ही रहता है। यह संसार सत् एवं असत्, अमृत तथा मरणशील तत्वों के संयोग से बना है। जीवन की कलाकारिता इसी में है कि संसार में संव्याप्तविष से बचते हुए व अमृत का उपयोग करते हुए आगे बढा जाए। विष के संसर्ग से प्राण पीडित होते हैं और अमृत के संसर्ग से वे आनंदित होते हैं। प्राणों के विषों की ओर आकर्षित होने से रोक कर उसे अमृत की ओर प्रेरित करने की जीवन कला सिखाने का कार्य गुरु का है। यदि प्राण में विष को नकारने की या अमृत की ओर गतिशील होने की क्षमता नहीं रह गयी है, तो उचित उपचार द्वारा दुर्बल प्राणों को पुन:तेजस्वी बनाना भी गुरु अपने परिष्कृत और प्रखर प्राणों के संयोग से करते हैं।

सही दिशा की प्रेरणा का प्राथमिक प्रवाह वाणी से ही प्रकट होता है। गुरु उस अमृत तत्वयुक्तवाणी को प्रगट करता है और शिष्य उसे धारण करता है। वाणी के साथ समाविष्ट अमृत रूप प्राण शिष्य में स्थित होकर उसकी साधना से परिपक्व होता है। वही परिपक्व प्राण उसे अमृतत्व की दिशा में प्रेरित करता है, गति देकर सद्गति का अधिकारी बनाता है। गायत्री महामंत्र में भी यही चार चरण हैं, भूर्भुव:स्व: में व्याप्त उस महाप्राणको गुरु रूप में नमन्, उसके वरणीय देवत्व युक्त भर्गतेज प्राण को सविता सर्वप्रेरकरूप में स्वीकार करना, उस अमृत प्राण प्रवाह को अपने अंत:करण में धारण करना तथा उस महाप्राणद्वारा जीवन को संचालित किया जाना।

जय श्रीमन्नारायण!

Sunday, 7 June 2015

sanshpt prapannamrit

मूल लेखक: श्री आन्ध्रपूर्ण कुलोत्पन्न उभय वेदान्त के प्रकाण्ड विद्वान् श्रीमदनन्ताचार्य स्वामीजी
सम्पादक: जगद्गुरु रामानुजाचार्य वेदान्त मार्तण्ड यतीन्द्र स्वामीजी श्री रामनारायणाचार्यजी स्वामीजी महाराज
विशेषत: इस ग्रंथमें
१ स्वाचार्य
२ वरवरमुनीन्द्राचार्य
३ श्रीमद्यतीन्द्र रामानुजाचार्य
४ श्री शठकोप स्वामीजी और
५ भगवान श्रीमन्नारायण
इन पांच रत्नोंका उल्लेख होनेके कारण यह ग्रंथ पञ्चरत्न प्रकाशक भी कहा जाता है।
भगवत् शरणागतिनिष्ठ प्रपन्न श्रीवैष्णवोंके लिये अमृत के समान पूर्वाचार्योंका सुमधुर चरित्र होने के कारण इसका नाम प्रपन्नामृत है।

प्रपन्नामृत - प्रथम अध्याय
भगवान वैकुण्ठनाथ के साथ आदिशेष का संवाद
वैकुण्ठ पुरी के बीच में ब्रह्मादि देवताओंसे भी अगम्य भगवान श्रीमन्नारायण का दिव्य धाम है।
जिसके मध्यमें सहस्र फणोंवाले श्री शेषजी के ऊपर श्रीदेवी भूदेवी एवं नीलादेवी से तथा नित्य-मुक्त पार्षदोंसे सुसेवित भगवान परवासुदेव सुखपूर्वक विश्राम कर रहे हैं।
एक समय भगवान को संसारियोंको वैकुण्ठ में लानेकी चिन्ता हुई।
श्रीशेषजी चिन्ता का कारण पूछे।
भगवान बोले की मैं जब भूमण्डल में अवतरित होता हुँ तो लोग मुझे ईश्वर नही मानतें।
भगवान आगे बोले की आपको छोडकर संसारियों की रक्षा करनेमें दूसरा कोई समर्थ नहीं।
अत: आप पृथ्वीपर अवतीर्ण होकर संसारियोंको सन्मार्गमें लगानेका काम करें।
श्री शेषजी बोले, "श्रीमान् यदि मुझे अपनी उभयविभूतियों (लीलाविभूति और नित्यविभूति) का अधिकार दें तो मैं इन संसारी जीवोंको किसी ना किसी तरह वैकुण्ठ अवश्य पहुँचाऊँगा।
भगवान ने श्री शेषजी को उभयविभूतियों का अधिकार सौंपा।
भगवान की आज्ञा पाकर श्री शेषजीने पृथ्वी पर अवतार लेनेका संकल्प किया।

प्रपन्नामृत - द्वितीय अध्याय
भगवद्रामानुजाचार्य का अवतार तोंडीर प्रदेश में सर्वसम्पन्न भूतपुरी नामक एक नगरी है। इसी नगरीमें सर्वगुणविभूषित हारीत कुलोद्भूत केशवाचार्य नामक भगवद् ध्यान निमग्न वैष्णवोत्तम ब्राह्मण निवास करते थे। उनकी धर्मपत्नी कीन्तिमती देवी थी। एक दिन भगवान पार्थसारथी नें उन्हे स्वप्न दिया की, "मैं ही अपने अंश से आपके पुत्र के रूप में अवतार लूँगा। चैत्र शुक्ल पंचमी को आर्द्रा नक्षत्रमें श्री रामानुज स्वामीजी का अवतार हुवा। रामानुज स्वामीजी के मामाजी श्री शैलपूर्ण स्वामीजी ने रामानुज को चक्रांतित करवाया। रामानुज स्वामीजी की दिव्य विशेषताओं को देखकर विद्वान ब्राह्मणोंने यह घोषित करदिया की यह शिशु श्री शेषजी का अवतार है।

प्रपन्नामृत - तृतीय अध्याय
पं. यादव प्रकाशाचार्य की सन्निधि में अध्ययन करते हुए श्री रामानुजाचार्य का राजकन्या को ब्रह्मराक्षस से मुक्ति दिलाना रामानुजाचार्य कांचीमें आकर समस्त शास्त्रोंका ज्ञान सम्पादन करने हेतु यादव प्रकाशाचार्य की सन्निधिमें प्रतिदिन अध्ययन करने लगें। रामानुजाचार्य की कुशाग्र बुद्धि को देखकर पं. यादव प्रकाशाचार्य ने अनुमान लगाया की यह शेष का अवतार है। उसी समय उस देश की राजकन्या को ब्रह्मराक्षस का आवेग होगया था। ब्रह्मराक्षस विमोचन के लिये बहुतसे मन्त्रज्ञ आये परन्तु असफल रहे। यादव प्रकाशाचार्य भी ब्रह्मराक्षस को हटानेमें असफल रहे। ब्रह्मराक्षस यादवप्रकाशाचार्य को बोला, "तुम्हारा पुरुषोत्तम छात्र रामानुजाचार्य यदि अपने पैरोंसे छूकर अपना चरणोदक मुझे दे दें तो मैं स्वेच्छया यहाँ से चला जाऊँगा।" फिर राजा की प्रार्थना से रामानुजाचार्य आये और राजकन्या के सिर पर चरण रखकर अपना चरणोदक देकर ब्रह्मराक्षस को चले जानो की आज्ञा दी। रामानुजाचार्य की दिव्य कृपा से सभी पापोंसे मुक्त होकर वह ब्रह्मराक्षस वैकुण्ठ लोक को चला गया। राजा ने हर्षोत्फुल्लित होकर रामानुजाचार्य का सुवर्णाभिषेक किया। स्वभाव से ही ईर्षालू यादव प्रकाश ने इसे अपना अपमान मानकर रामानुजाचार्य के साथ मानसिक बैर कर लिया। तभी रामानुजाचार्य की मौसी द्युतिमती के पुत्र गोविन्दाचार्य भी कांची आकर रामानुजाचार्य के साथ यादव प्रकाशाचार्य के यहाँ अध्ययन करनें लगें। अध्यापन करते हुये यादव प्रकाश ने श्रुतिका उपनिषत्सिद्धान्त विरुद्ध अर्थ किया, जिसे सुनकर रामानुजाचार्य ने आपत्ति दर्शाई। इससे कृद्ध होकर यादवप्रकाश ने रामानुजाचार्य से रुक्ष व्यवहार किया। इससे दु:खी होकर रामानुजाचार्य उठकर चले गये और अपने घरमें ही अध्ययन करने लगे।
प्रपन्नामृत - चतुर्थ अध्याय
पं. यादव प्रकाशाचार्य द्वारा श्रीरामानुजाचार्य का विन्ध्य बन में त्याग ▶ एक समय अपने सभी शिष्योंको बुलाकर यादवप्रकाश बोले, "मेरी सन्निधिमें पढकर मेरे श्रुत्यर्थोंको अशुद्ध बतलानेवाला रामानुज मेरा शत्रु बन बैठा है। यह मेरे मत को खण्डित करनेके लिये ही अवतरित हुआ है। इस रामानुज का मैं कैसे वध करुँ?" ▶ यादवप्रकाश नें शिष्योंके साथ मिलकर रामानुजाचार्य के वध की योजना बनायी। ▶ तदनन्तर छोडकर चले गये रामानुजाचार्य को बुलाकर झूठी मधुर वाणी बोलकर पुन: अध्ययन के लिये बुलाया। ▶ एक दिन छली यादवप्रकाश ने रामानुजाचार्य को माघ मास निमित्त गंगाजी में स्नान के लिये प्रयाग चलनेके लिये आमन्त्रित किया। ▶ माता कांतिमति से आज्ञा लेकर रामानुजाचार्य यादवप्रकाश के साथ चल दिये। ▶ रामानुजाचार्य के भाई गोविन्दाचार्य को यादवप्रकाश की योजना का पता था, अत: रामानुजाचार्य की रक्षा करने हेतु वे भी साथमें चल दिये। ▶ एक दिन हिंसक पशुओंके जंगलमें रामानुजाचार्य को छोडकर यादवप्रकाश आगे निकल गये। ▶ गोविन्दाचार्य ने रामानुजाचार्य को बताया, "भैय्या! गंगा स्नान के बहाने आपको मारनेके लिये लेके जा रहे हैं, अत: आप को रुक जाना चाहिये। ▶ रामानुजाचार्य वहाँसे यादवप्रकाश का साथ छोडकर निकलगये। ▶ बहोत ढूँढनेपर भी रामानुज नही मिले, अत: उन्हे हिंसक पशुओंनें मारदिया होगा यह समझकर भीतरसे प्रसन्न पर उपरसे दु:ख का स्वांग रचाते हुये यादवप्रकाश उस रात्रि शांतिपुर्वक सोया।

Friday, 5 December 2014

List of Deities in Divyadesams






LIST OF DEITIES IN DIVYADESHAMS

1
Srirangam
Ranganayagi
Ranganathar (Periya Perumal)
2
Thirukozhi
Kamalavalli Vasalakshmi
Sundaravaraya Perumal
3
Thirukarambanur
Poornaavalli
Purushothama Perumal
4
Thiruvellarai
Rakthapankajavalli
Pundarikaksha Perumal
5
Thiruanbil
Soundaryavalli
Sundaramoorthaye Poornaya Perumal
6
Thiruppernagar
Indravalli
Appala Ranganatha Perumal
7
Thirukandiyur
Kamalavalli
Kamalanatha, Harasabavimochana Perumal
8
Thirukoodalur
Padmasani
Jagathrakshaga Perumal
9
Thirukavithalam
Ramamanivalli
Gajendravaradha Perumal
10
Thiruppullamboothangudi
Hemabja
Thrudathanvee Ramabadhra Perumal
11
Thiruaadhanur
Ranganayagi
Varshakalathinayaka Perumal
12
Thirukudanthai
Komalavalli
Aparyapthamrutha Perumal
13
Thiruvinnagar
Boodevi
Lavanavarjitha Srinivasa Perumal
14
Thirunaraiyur
Vanjulavalli
Srinivasa Perumal
15
Thirucherai
Saranayagi
Saranatha Perumal
16
Thirunandhipura Vinnagaram
Shenbagavalli
Jagannatha Perumal
17
Thiruvelliyangudi
Maragadhavalli
Srungarasundara Danushbani Ramaya Perumal
18
Thirukannamangai
Abishegavalli
Bhaktavatsala Perumal
19
Thirukannapuram
Kannapura
Sowriraja Perumal
20
Thirukannangudi
Loganayagi
Lokanatha Perumal
21
Thirunagai
Soundaryavalli
Neelamega Perumal
22
Thiruthanjai Mamanikoil
Rakthapankajavalli
Neelamega Perumal
Manikundram
Ambujavalli
Maniparvatha Perumal
Thanjaiyali Nagar
Thanjanayagi
Narasimha Perumal
23
Thiruvazhundur
Rakthapankajavalli
Devadhiraja Perumal
24
Thiruchirupuliyur
Dhayanayagi
Krupasamudra Perumal
25
Thiruthalaichanga Nanmadiyam
Siras sanga
Chandrasabahara Perumal
26
Thiruindalur
Parimalaranga
Parimalaranganatha Perumal
27
Thirukazhicheerama Vinnagaram
Loganayagi
Lokanatha Thrivikrama Perumal
28
Thirukkavalambadi
Pankajavalli
Gopala Krishna Perumal
29
Thiruarimeya Vinnagaram
Amrudhagadavalli
Gadakeli Narthanaya Perumal
30
Thiruvanpurushothamam
Purushothama
Purushothama Perumal
31
Thirusemponsaikoil
Sweda Pushpavalli
Hemaranganatha Perumal
32
Thirumanimadakoil
Pundareegavalli
Sashvatha Deepaya Narayana Perumal
33
Thiruvaigunda Vinnagaram
Vaigundavalli
Vaikuntanatha Perumal
34
Thiruthetriambalam
Rakthapankajavalli
Lakshmiranga Perumal
35
Thirumanikoodam
Boonayagi
Varadharaja Perumal
36
Thiruparthanpalli
Kamala
Parthasarathy roopa, Kamalapathaye Perumal
37
Thiruvali & Thirunagari
Amrudhagadavalli
Kedarapathivaraya Perumal
38
Thiruthevanarthogai
Samudradanaya
Devanayaka Perumal
39
Thiruvellakulam
Padmavathi
Srinivasa Perumal
40
Thiruchitrakoodam
Pundareegavalli
Govindaraja Perumal
41
Thiruvaheendrapuram
Hemabujavalli
Devanatha Perumal
42
Thirukkovalur
Pushpavalli
Thrivikrama Perumal
43
Thirukkachi - Atthigiri
Perundevi
Devathiraja Perumal
44
Ashtabuyagaram
Padmasani
Gajendravarada Perumal
45
Thiruthanka
Maragadhavalli
Deepaprakasa Perumal
46
Thiruvelukkai
Amruthavalli
Sundharayoghanarasimha Perumal
47
Thiruneeragam
Boovalli
Jagadeeswara Perumal
48
Thiruppadagam
Rukmani Sathyabama
Pandavadootha Perumal
49
Thiru Nilathingal Thundam
Chandrasoodavalli
Chandrasooda Perumal
50
Thiruooragam
Amudavalli
Thrivikrama Perumal
51
Thiruvehka
Komalavalli
Yathokthakari Perumal
52
Thirukkaragam
Padmamani
Karunagara Perumal
53
Thirukkarvaanam
Kamalavalli
Neelamega Perumal
54
Thirukkalvanur
Sundarabimbavalli
Choranatha Perumal
55
Thiruppavalavannam
Pravalavalli
Pravalavarna Perumal
56
Thiruparamechura Vinnagaram
Vaigundavalli
Vaikundanatha Perumal
57
Thirupputkuzhi
Maragadavalli
Vijayaraghava Perumal
58
Thirunindravur
Sudhavalli
Bhaktavatsala Perumal
59
Thiruevvul
Kanagavalli
Vaidhya Veeraraghava Perumal
60
Thiruvallikeni
Rukmani
Venkatakrishna Perumal
61
Thiruneermalai
Sundaravalli
Jalathivarnaya Perumal
62
Thiruidaventhai
Komalavalli
Lakshmivaraha Perumal
63
Thirukkadalmallai
Boosthalamangadevi
Sthalasayana Perumal
64
Thirukkadigai
Amruthabalavalli
Yoganarasimha Perumal
65
Thiruvayothi
Seethadevi
Ramachandra Perumal
66
Thirunaimisaranyam
Sriharilakshmi
Devaraja Perumal
67
Thirupruthi
Parimalavalli
Paramapurushaya Perumal
68
Thirukkandamenum Kadinagar
Pundareegavalli
Neelamega Perumal
69
Thiruvadariyachramam
Aravindavalli
Badrinarayana Perumal
70
Thirusalakraamam
Sridevi
Srimoorthi Perumal
71
Thiruvadamadurai
Sathyabama
Govardhanagiridhari Perumal
72
Thiruvaipadi
Rukmani Sathyabama
Navamohanakrishna Perumal
73
Thirudwaragai
Lakshmi
Rukmanyadhi Ashtamahishi, Dwarakadeesa Perumal
74
Thirusingavelkundram
Amruthavalli Senchulakshmi
Lakshminarasimha Perumal
75
Thiruvengadam(Mel Thirupathi)
Padmavathi
Srinivasa Perumal
76
Thirunavai
Padmavathi
Narayana Perumal
77
Thiruvithuvakodu
Vithuvakoduvalli
Sri Abhayapradhaya Perumal
78
Thirukatkarai
Vathsalyavalli
Katkaraswami Perumal
79
Thirumoozhikkalam
Madhuraveni
Sookthinatha Perumal
80
Thiruvallavazh
Vathsalyavalli
Sundaraya Perumal
81
Thirukkadithalam
Karpagavalli
Amruthanarayana Perumal
82
Thiruchengundrur
Rakthapankajavalli
Devathideva Perumal
83
Thiruppuliyur
Hemalatha
Mayashaktiyuthaswamy Perumal
84
Thiruvaranvilai
Padmasani
Vamana Perumal
85
Thiruvanvandoor
Kamalavalli
Kamalanatha Perumal
86
Thiruvananthapuram
Harilakshmi
Ananthapadmanabha Perumal
87
Thiruvattaru
Maragadhavalli
Adhikesava Perumal
88
Thiruvanparisaram
Kamalavalli
Vamanaya Perumal
89
Thirukkurungudi
vamanashetravalli
Vamanakshetrapoornaya Perumal
90
Thirucheeravaramangai
Chireevaramangaivalli
Thothadhrinatha Perumal
91
Thiruvaigundam (Navathirupathi)
Boonayagi, Vaigundavalli
Vaikuntanatha Perumal
92
Thiruvaragunamangai (navathirupathi)
Varagunavalli
Vijayasana Perumal
93
Thiruppuliangudi (Navathirupathi)
Boonayagi
Boomipalaya Vairinedharchidha Gopaya Perumal
94
Thirutholaivillimangalam(Navathirupathi)
Visalakrishnakshidevi
Aravindhalochana Perumal
95
Thirukkulandai(Navathirupathi)
Baligavalli Padmavathi
Srinivasa Perumal
96
Thirukkolur(Navathirupathi)
Kolurvalli
Nikshepavithaya Perumal
97
Thirupperai (Navathirupathi)
Kundalakarnadevi
Dheerga Magarakundaladharaya Perumal
98
Thirukkurugur (Navathirupathi)
Aadhinathavalli
Aadhinatha Perumal
99
Thiruvillipputhur
Kodhadevi
Vadapathrasayee Perumal
100
Thiruthangal
Rakthapankajavalli
Narayana Perumal
101
Thirukkoodal
Madhuravalli
Sangamasundharaya Perumal
102
Thirumaliruncholai
Sundaravalli
Chorasundara Perumal
103
Thirumogur
Mohavalli
Kalamega Perumal
104
Thirukkoshtiyur
Mahalakshmi
Uraga Mrudusayanaya Perumal
105
Thiruppullani
Kalyanavalli, Padmasani
Kalyana Jagannatha Perumal
106
Thirumeyyam
Ujjeevana
Sathyagirinatha Perumal
107
Thirupparkadal
BooSamudradhanaya
Ksheerabdhinatha Perumal
108
Thirupparamapadham
Mahalakshmya
Paramapadhanathaya PerumalDivyadesam


JAI SHRIMANNARAYAN 

PANDIT SHRIDHAR MISHRA 
DELHI 

Monday, 25 August 2014

गुरुतत्वके प्रति श्रद्धा

 

 

नमोस्तुगुरवेतस्मैगायत्री रूपिणेसदा।

 यस्यवागमृतंहन्तिविषंसंसार संज्ञकं॥


उन गुरु को नमस्कार है, जो सदा गायत्री रूप में स्थित होते हैं, जिनकी अमृत वाणी संसार रूपी विष को नष्ट कर देती है।
यह बडी सारगर्भित वन्दना है, जिसमें गुरुतत्वके प्रति श्रद्धा के साथ ही उसके स्वरूप एवं प्रभाव को भी बडी सुन्दरता के साथ व्यक्त किया गया है। इस श्लोक में चार चरण हैं-गुरु को नमन, गुरु का गायत्री रूप में स्थित होना, गुरु-वाणी अमृत स्वरूप होना, उससे संसार रूपी निन्दा का शमन होना। क्रमश:प्रत्येक चरण के भावों का समीक्षात्मक अध्ययन करें।
गुरु को नमन-गुरु अपने विषय के विशेषज्ञ होते हैं। उनसे अनुदान पाने के लिए श्रद्धा भाव आवश्यक है। गुरु केवल विधि ही नहीं बतलाते, अपनी शक्ति का, अपने प्राणों का एक अंश भी देने में समर्थ होते हैं। जिस प्रकर पानी का प्रवाह ऊपरी सतह से निचली सतह की ओर होता है, उसी प्रकार चेतना-ज्ञान का प्रवाह श्रद्धास्पद व्यक्तित्व की ओर से नमनशीलव्यक्तित्व की ओर होता है। यह सनातन नियम है। व्यक्ति में पात्रता हो, लेकिन वह नमनशीलन हो, अहंकारी हो, तो उसे कल्याणकारी ज्ञान प्राप्त होना और फलित होना असंभव हो जाता है।
यहां नमस्कार केवल शिष्टाचार वाला हो, तो काम नहीं चलेगा। उसे श्रद्धा से प्रेरित होना चाहिए। किंतु समस्या यह आ जाती है कि श्रद्धा हर जगह नहीं झुकती। गुरु में श्रद्धा को आकर्षित करने की शक्ति होनी चाहिए। यदि पाने वाले में श्रद्धा न हो, तो भी बात नहीं बनती और गुरु में श्रद्धास्पद बनने की क्षमता न हो तो भी नमन की स्थिति नहीं बन पाती। शिष्य को नमनशीलश्रद्धालु होना चाहिए, तो गुरु को भी श्रद्धास्पद होना चाहिए। गुरु कैसे होते हैं, यह बात आगे के चरणों में स्पष्ट की गयी है।
गुरु सदा गायत्री रूप हो-भारतीय संस्कृति के अनुसार गुरु तत्व को व्यक्ति रूप में भी पाया जा सकता है और शक्ति रूप में भी। दोनों ही स्थितियों में उसे गायत्री रूप में प्रतिष्ठित होना चाहिए, ऐसा आचार्य शंकर का मत है। गायत्री का अर्थ है, गय-प्राण,त्री-त्रायते,त्रण-उद्धारकरने वाली शक्ति। प्राण तत्व जब ईश्वरीय अनुशासन में बंधकर व्यक्त होता है, तो सृष्टि के विभिन्न घटक बनते हैं। सृष्टि के उद्भव का, उसे प्रकट करने का यह कार्य ईश्वर का- नियन्ता का है। जो प्राण पदार्थ के साथ संयुक्त होकर प्राणी के रूप में स्थापित हो गए, उन्हें प्राण की मुख्यधारा से जोडे रखना ही प्राणों का त्राण करना है।
जीवन की सारी क्रियाएं प्राण से ही संचालित होती हैं। प्राण में विकार आ जाने से जीवन की सभी क्रियाएं, सारा जीवन विकार ग्रस्त हो जाता है। शारीरिक-मानसिक रोग, तनाव, पाप-वृत्तियां सब इसी प्राण के विकारों की ही उपज हैं। प्राण के प्रकटीकरण का कार्य ईश-तत्व का है और उसके त्राण का कार्य गुरु तत्व का है। इसीलिए गुरु को गायत्री रूप में-प्राणों का त्राण करने वाली साम‌र्थ्य के रूप में सदैव प्रतिष्ठित रहना आवश्यक है। भारतीय संस्कृति में ऋषियों ने इसीलिए यह व्यवस्था बनाई है कि यदि व्यक्ति रूप में गुरु की प्राप्ति न हो सके, तो मन्त्र रूप-शक्ति रूप में गायत्री विद्या को गुरु मानकर आत्म-लाभ किया जा सकता है। इसीलिए अनादि काल से गायत्री मंत्र को गुरु मंत्र के रूप में ऋषियों ने प्रतिष्ठित रखा है।
संसार का विष और गुरु वचनों का अमृत- प्राणी संसार में ही रहता है। यह संसार सत् एवं असत्, अमृत तथा मरणशील तत्वों के संयोग से बना है। जीवन की कलाकारिता इसी में है कि संसार में संव्याप्तविष से बचते हुए व अमृत का उपयोग करते हुए आगे बढा जाए। विष के संसर्ग से प्राण पीडित होते हैं और अमृत के संसर्ग से वे आनंदित होते हैं। प्राणों के विषों की ओर आकर्षित होने से रोक कर उसे अमृत की ओर प्रेरित करने की जीवन कला सिखाने का कार्य गुरु का है। यदि प्राण में विष को नकारने की या अमृत की ओर गतिशील होने की क्षमता नहीं रह गयी है, तो उचित उपचार द्वारा दुर्बल प्राणों को पुन:तेजस्वी बनाना भी गुरु अपने परिष्कृत और प्रखर प्राणों के संयोग से करते हैं।
सही दिशा की प्रेरणा का प्राथमिक प्रवाह वाणी से ही प्रकट होता है। गुरु उस अमृत तत्वयुक्तवाणी को प्रगट करता है और शिष्य उसे धारण करता है। वाणी के साथ समाविष्ट अमृत रूप प्राण शिष्य में स्थित होकर उसकी साधना से परिपक्व होता है। वही परिपक्व प्राण उसे अमृतत्व की दिशा में प्रेरित करता है, गति देकर सद्गति का अधिकारी बनाता है। गायत्री महामंत्र में भी यही चार चरण हैं, भूर्भुव:स्व: में व्याप्त उस महाप्राणको गुरु रूप में नमन्, उसके वरणीय देवत्व युक्त भर्गतेज प्राण को सविता सर्वप्रेरकरूप में स्वीकार करना, उस अमृत प्राण प्रवाह को अपने अंत:करण में धारण करना तथा उस महाप्राणद्वारा जीवन को संचालित किया जाना।

जय श्रीमन्नारायण

पंडित श्रीधर मिश्रा 

Thursday, 21 August 2014

. हम बदलेँगे- युग बदलेगा, हम सुधरेँगे- युग सुधरेगा,

 हम बदलेँगे- युग बदलेगा, हम सुधरेँगे- युग सुधरेगा




मनुष्य जब अपनी कल्पना की तरंगों को विवके से सॅंवारता है और जब एक ही उद्धेश्य सामने आता है तब संकल्प का उदय होता है, जब संकल्प उपर आता है तब मनुष्य अपनी सारी ऊर्जा को उस संकल्प को पूरा करने में लगा देता है। आइए, इस नवरात्रि में आत्म निर्माण का सत्संकल्प करें......कि :

1. हम ईश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी मानकर उसके अनुशासन को अपने जीवन में उतारेँगे।
2. शरीर को भगवान का मंदिर समझकर आत्म- संयम और नियमितता द्वारा अयोग्य की रक्षा करेंगे।
3. मन को कुविचारोँ और दुर्भावनाओँ से बचाए रखने के लिए स्वाध्याय एवं सत्संग की व्यवस्था बनाए रखेंगे।
4. इंद्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम और विचार संयम का सतत अभ्यास करेंगे।
5. अपने आपको समाज का एक अंग मानेँगे और सबके हित में अपना हित समझेंगे।
6. मर्यादाओँ को पालेँगे, वर्जनाओँ से बचेंगे, नागरिक कर्तव्यों का पालन करेंगे और समाजनिष्ठ बने रहेंगे।
7. समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी को जीवन का एक अविच्छिन्न अंग मानेँगे।
8. चारों ओर मधुरता, स्वच्छता, सादगी एवं सज्जनता का वातावरण उत्पन्न करेंगे।
9. अनीति से प्राप्त सफलता की अपेक्षा नीति पर चलते हुए असफलता को शिरोधार्य करेंगे।
10. मनुष्य के मूल्यांकन की कसौटी उसकी सफलताओं, योग्यताओँ एवं विभूतियोँ को नहीं, उसके सद्‌विचारोँ और सत्कर्मोँ को मानेँगे।
11. दूसरों के साथ वह व्यवहार नहीं करेंगे जो हमें अपने लिए पसंद नहीं।
12. नर- नारी आपस में पवित्र दृष्टि रखेंगे।
13. संसार में सत्प्रवृत्तियोँ के पुण्य प्रसार के लिए अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन का एक अंश नियमित रूप से लगाते रहेंगे।
14. परंपराओं की तुलना में विवेक को महत्व देंगे।
15. सज्जनोँ को संगठित करने, अनीति से लोहा लेने और नव- सृजन की गतिविधियों में पूरी रुचि लेंगे।
16. राष्ट्रीय एकता एवं समता के प्रति निष्ठावान रहेंगे। जाति, लिंग, भाषा, प्रांत, संप्रदाय आदि के कारण परस्पर कोई भेदभाव नहीं करेंगे।
17. मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है, इस विश्वास के आधार पर हमारी मान्यता है कि हम उत्कृष्ट बनेंगे और दूसरों को श्रेष्ठ बनाएँगे, तो युग अवश्य बदलेगा
18. हम बदलेँगे- युग बदलेगा, हम सुधरेँगे- युग सुधरेगा, इस तथ्य पर हमारा पूर्ण विश्वास है।



नारायण की जय हो !

 पंडित श्रीधर मिश्रा

Friday, 23 May 2014

यज्ञोपवीत संस्कार






                                      यज्ञोपवीत संस्कार









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उपनयन के दिन प्रातः कुमार के पिता शुभ आसन पर पूरब की ओर बैठकर, आचमन, प्राणायाम कर दक्षिण हाथ में अक्षत, फूल लेकर ‘आ नो भद्रादि’ मúल मंत्रा को तथा ‘सुमुखश्चैकदन्तश्च’ आदि श्लोक का पाठ करें।
तत्पश्चात् हाथ में फल अक्षत जल और द्रव्य लेकर देशकाल आदि का नाम लेते हुए संकल्प करें।ॐविष्णु...................अमुक गोत्रोत्पन्नः शर्माऽहं मम अस्य कुमारस्य (अनयोः कुमारयोः, वा एषां कुमाराणां) श्वः, अद्य वा करिष्यमाणोपनयन-विहितं स्वस्ति-पुण्याहवाचनं मातृकापूजनं, वसोद्र्धारा-पूजनम् आयुष्यमन्त्रजपं, साøल्पिकेन विधिना नान्दीश्राद्धं चाऽहं करिष्ये। तत्रादौ निर्विघ्नतासिद्धîर्थं गणेशाऽम्बिकयोः पूजनमहं करिष्ये।

ऐसा बोलकर पृथ्वी पर जल छोड़े।

(नोटः-गौरी-गणेश पूजन, कलश स्थापन एवं पूजन आदि कृत्य की प्रक्रिया ‘‘सामान्य पूजन विधि’’ शीर्षक के अनुसार यथाविधि सम्पन्न कर आगे दिये विधि को करें।)

यदि उपनयन का समय बीत गया हो, तो प्रायश्चित्त रूप गोदान करे।वह इस प्रकार है-दाहिने हाथ में जल लेकर, ‘देशकालौ संकीत्र्य0’ से लेकर ‘दातुमहमुत्सृजे’ तक संकल्प-वाक्य पढ़े- देशकालौ सङ्कीत्र्य, गोत्रोत्पन्नः शर्माऽहम् अस्य बटुकस्य (अनयोः बटुकयोः, एषां बटुकानां वा उपनयन कालातिक्रमदोष- परिहारार्थं प्राजापत्यत्रायं गोनिष्क्रयभूतं द्रव्यं रजतं चन्द्रदैवतं नानानामगोत्रोभ्यो ब्राह्मणेभ्यो विभज्य दातुमहमुत्सृजे। भूमि में जल छोड़ दे।

उसके बाद यज्ञोपवीत के दिन कुमार-पिता अथवा आचार्य पूर्वाभिमुख हो आचमन प्राणायाम कर हाथ में जल लेकर ‘देशकालौ संकीत्र्य0, से ‘दातुमहमुत्सृजे’ तक संकल्प पढ़े। ‘देशकालौ सङ्कीत्र्य, गोत्रोत्पन्नः शर्माऽहं मम अस्य बटुकस्य (अनयोः बटुकयोः, वा एषां बटुकानाम्) उपनयन-कर्मानधिकारिता-प्रयोजक- कायिकादि-निखिल-पापक्षयार्थं ‘तत्राऽधिकारसिद्धिद्वाराश्रीपरमेश्वर-प्रीत्यर्थ कृच्छ्रत्रायात्मक-प्रायश्चित्तं गोनिष्क्रयभूतं द्रव्यं रजतं चन्द्र-दैवतं यथानामगोत्रोभ्यो ब्राहणेभ्यो विभज्य दातुमहमुत्सृजे।’









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इसी प्रकार बटु (कुमार) भी आचमन, प्राणायाम कर हाथ में जल लेकर ‘देशकालौ संकीत्र्य0’ से ‘दातुमहमुत्सृजे’ पर्यन्त संकल्प-वाक्य पढ़े। ‘देशकालौ सङ्कीत्र्य, गोत्राः बटुकोऽहं मम कामचार-कामवाद-कामभक्षणादिदोषनिरसन-पूर्वकोपनयन- वेदारम्भ-समावर्तनेष्वधिकारसिद्धि-द्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं कृच्छ्रत्रायात्मकं प्रायश्चित्तं गोनिष्क्रयभूतं द्रव्यं रजतं चन्द्रदैवतं यथायथा-नामगोत्रोभ्यो ब्राह्मणेभ्यो विभज्य दातुमहमुत्सृजे’ ऐसा बोलकर भूमि पर जल छोड़ दे।

उसके बाद कुमार-पिता या आचार्य हाथ में जल लेकर ‘देशकालौ संकीत्र्य0’ से ‘ब्राह्मणद्वारऽहं कारयिष्ये’ तक संकल्प-वाक्य पढ़े। ‘देशकालौ सङ्कीत्र्य, गोत्रोत्पन्नः शर्माऽहम् अस्य बटुकस्य (अनयोः बटुकयोः, वा एषां बटुकानां) गाय
युपदेशाऽधिकारसिद्धिद्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं द्वादशोत्तरसहó- सङ्खîाक-गायत्रीजपं ब्राह्मणद्वाराऽहं कारयिष्ये।’ पुनः ‘अस्मिन् गायत्रीजपकर्मणि0’ से ‘त्वामहं वृणे’ तक उच्चारण करें भूमि में जल छोड़ दे। ‘अस्मिन् गायत्रीजपकर्मणि एभिर्वरणद्रव्यैरमुकगोत्राममुकशर्माणं ब्राह्मणं द्वादशोत्तरसहस्र-गायत्रीजपार्थं त्वामहं वृणे।’ ब्राह्मण भी, ‘वृतोऽस्मि’ इस प्रकार कहे।

पुनः आचार्य, हाथ में जल लेकर ‘अस्य बटुकस्य0’ से ‘ब्राह्मणत्रायं भोजयिष्ये’ तक पढ़कर संकल्प करे। ‘अस्य बटुकस्य (अनयोः बटुकयोः, वा एषां बटुकानाम्) उपनयनपूर्वाङ्गतया विहितं ब्राह्मणत्रायं भोजयिष्ये। और उस पंक्ति में बटुक को भी कुछ मिष्ठान्न खिलावे। पुनः हाथ में जल लेकर ‘अस्य बटुकस्य0’ से ‘वपनं कारयिष्ये’ एवं ‘अस्मिन्नुपनयनाख्ये कर्मणि0’ से ‘अग्निस्थापनं च करिष्ये’ तक संकल्प-वाक्य पढ़ें। ‘अस्य बटुकस्य (अनयोः बटुकयोः, वा एषां बटुकानाम्) उपनयन-पूर्वाङ्गभूतं वपनं कारयिष्ये।’ एवम् ‘अस्मिन्नुपनयनाख्ये कर्मणि पञ्चभूसंस्कारपूर्वकं समुद्भवनामाऽग्निस्थापनं च करिष्ये।’ भूमि में जल छोड़ दे।

पञ्चभू संस्कार


इसके बाद आचार्य मुट्ठी भर कुशा हाथ में लेकर वेदी को झाड़े और उस कुशा को ईशान कोण में फेंक दे। उस वेदी को गोबर और जल से लीपे, पुनः òुवा के मूल से वेदी में तीन रेखा करे, रेखा के क्रम से अनामिका अँगुलि एवं अँगुठे द्वारा रेखा की मिट्टी को उठावे, पुनः रेखा पर जल छिड़के। काँसे के पात्रा (थाली) में अग्नि अपने मुख की ओर करके वेदी में स्थापन करे।

उसके बाद आचार्य, अथवा कुमार-पिता हाथ में जल लेकर ‘अस्य बटुकस्य0’ से ‘उपनयनमहं करिष्ये’ तक संकल्प-वाक्य उच्चारण करे। ‘अस्य बटुकस्य (अनयोः बटुकयोः, वा एषां बटुकानां) ब्राह्मण्याभिव्यक्ति-द्विजत्वसिद्धîर्थं
वेदाध्ययनाधिकारार्थं चोपनयनमहं करिष्ये’ भूमि में जल छोड़ दे।

उसके बाद ब्राह्मण एवं बटुक को भोजन कराकर क्षौर किये एवं मङ्गल स्नान  किये हुए, तथा सिर पर रोरी द्वारा स्वस्तिक चिद्द से अंकित, अक्षत, फल हाथ में लिये हुए बटुक को आचार्य के समीप ले आवे। और अग्नि के पीछे पूर्वाभिमुख बटुक को बैठाकर आचार्य ‘ॐ मनो जूतिः0’ से ‘प्रतिष्ठ’ तक मन्त्र पढ़े।
मनो ज्जूतिर्जुषतामाज्यस्य बृहस्पतिर्यज्ञमिमं तनोत्वरिष्टं यज्ञ ˜ समिमं दघातु। विश्वेदेवास ऽइह मादयन्तामों प्रतिष्ठ।।

तत्पश्चात् आचार्य कुमार से ‘ब्रह्मचर्यमागामि’ इस प्रकार कहे। पुनः आचार्य कुमार से ‘ब्रह्मचार्यसानि’ इस प्रकार कहे।
उसके बाद आचार्यॐयेनेन्द्राय बृहस्पतिर्वासः पर्यदधादमृतम्। तेन त्वा परिदधाम्यायुषे दीर्घायुत्वाय बलाय वर्चसे।। तक मन्त्र पढ़कर कुमार को वó पहनावे। पुनः बटुक को आचमन करावे। निम्न मन्त्र पढ़कर बटुक को खड़ाकर आचार्य उसकी कमर में मेखला बाँधे।ॐइयं दुरूक्तं परिबाधमाना वर्णं पवित्रंा पुनती म आगात्। प्राणापानाभ्यां बलमादधाना स्वसा देवी सुभगा मेखलेयम्।।

तत्पश्चात् आचार्य बटुक को बैठाकर आचमन करावे और बटुक हाथ में जल लेकर अष्टभाण्ड (आठ पुरवा या गिलास) में चावल, यज्ञोपवीत एवं द्रव्य रखकर संकल्प करे। ‘देशकालौ सङ्कीत्र्य, गोत्रोत्पन्नः बटुकोऽहं स्वकीयोपनयन- कर्मविषयक- सत्संस्कारप्राप्त्यर्थं तथा च द्विजत्वसिद्धि-वेदाध्ययनाधिकारार्थं
यज्ञोपवीतधारणार्थं च श्रीसवितृसूर्य नारायणप्रीतये इमान्यष्टौ भाण्डानि स-यज्ञोपवीत-फलाक्षतदक्षिणासहितानि यथायथा-नामगोत्रोभ्यो ब्राह्मणेभ्यो दातुमह-मुत्सृजे’।

यज्ञोपवीत संस्कार







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आचार्य निम्नलिखित तीन मंत्रों को पढ़कर यज्ञोपवीत का प्रक्षालन करें।
ॐ आपो हिष्ठामयो भुवस्ता न ऽउज्र्जे दधातन। महे रणाय चक्षसे।।1।।

ॐ यो वः शिवतमोरसस्तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः।।2।।

ॐ तस्मा ऽअरङ्गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ। आपो जनयथा च नः।।3।।

उसके बाद आचार्य पुनःॐब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्वि सीमतः सुरुचो वेन ऽआवः। स बुध्न्या ऽउपमा ऽअस्य विष्ठाः सतश्च योनिमसतश्च व्विवः।।1।।ॐइदं विणुर्विचक्रमे त्रोधा निदधे पदम्। समूढमस्य पा ˜ सुरे स्वाहा।।2।।ॐनमस्ते रुद्र मन्यव ऽउतो त ऽइषवे नमः। बाहुभ्यामुत ते नमः।।3।। तीन मन्त्रों से हाथ के दोनों अँगूठे द्वारा यज्ञोपवीत को घुमावे।

तदनन्तर उस यज्ञोपवीत को कसोरे में रखकर यज्ञोपवीत के नवतन्तुओं में देवताओं का न्यास करे। वह इस प्राकर है-बाँयें हाथ में अक्षत लेकर, दाहिने हाथ से ॐकारं प्रथमतन्तौ न्यसामि।।1।।ॐअग्ंिन द्वितीयतन्तौ न्यसामि।।2।।ॐनागांस्तृतीयतन्तौ न्यसामि।।3।।ॐसोमं चतुर्थतन्तौ न्यसामि।।4।।ॐइन्द्रं पञ्चमतन्तौ न्यसामि।।5।।ॐप्रजापतिं षष्ठतन्तौ न्यसामि।।6।।ॐवायुं सप्तमतन्तौ न्यसामि।।7।।ॐसूर्यमष्टमतन्तौ न्यसामि।।8।।ॐविश्वेदेवान् नवमतन्तौ न्यसामि।।9।। उच्चारण कर यज्ञोपवीत के नवतन्तुओं में अक्षत चढ़ावे।

तथाॐउपयामगृहीतोऽसि सवित्रोऽसि चनोधाश्चनाधा ऽअसि चनो मयि धेहि। जिन्वि यां जिन्व यज्ञपतिं भगाय देवाय त्वा सवित्रो।। मन्त्र पढ़कर यज्ञोपवीत को सूर्य की ओर दिखावे। पुनः यज्ञोपवीत को बाँयें हाथ की हथेली में रख, उसे दाँयें हाथ की हथेली से ढँककर दश बार गायत्री का जप करे। फिर हाथ में जल लेकर ‘यज्ञोपवीतमि’ त्यस्य परमेष्ठी ऋषिः, त्रिष्टुप्-छन्दः, लिङ्गोक्ता देवता, नित्य-नैमित्तिक-कर्मानुष्ठानफल-सिद्धîर्थे यज्ञोपवीत-धारणे विनियोगः’ पढ़कर भूमि पर जल छोड़ दे औरॐयज्ञोपवीतं परमं पवित्रां प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्। आयुष्यमग्रîं प्रतिमुञ्च शुभं्र यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।। यज्ञोपवीतमसि यज्ञस्य त्वा यज्ञोपवीतेनोपनह्यामि।। तक मन्त्र पढ़कर कुमार को यज्ञोपवीत धारण करावे एवं कुमार से दो बार आचमन भी करावे।

उसके बाद आचार्यॐमित्रास्य चक्षुर्द्धरुणं बलीयस्तेजो यशस्वि स्थविर ˜ समिद्धिम्। अनाहनस्यं वसनं जरिष्णुं परीदं वाज्यजिनं दधेऽहम्।। मन्त्र उच्चारण कर कुमार को चुपचाप अजिन (मृगचर्म) धारण करावे और उससे दो बार आचमन भी करावे। पुनः आचार्यॐयो मे दण्डः परा-पतद्वैहायसोऽधिभूम्याम्। तमहं पुनरादद आयुषे ब्रह्मणे ब्रह्मवर्चसाय।। मन्त्र पढ़कर बटुक के केशपर्यन्त पलाश दण्ड चुपचाप दे और कुमार भी उस दण्ड को ग्रहण करे।

तत्पश्चात् आचार्य अपनी अंजलि में जल भरकर बटुक की अंजलि में जल दे। और ‘ॐ आपो हिष्ठा0’ से ‘आपो जनयथा च नः’ पर्यन्त तीन मन्त्रों से बटुक उस जलको ऊपर की ओर उछाल दे।
ॐ आपो हिष्ठामयो भुवस्ता न ऽउज्र्जे दधातन। महे रणाय चक्षसे।।1।।
ॐ यो वः शिवतमोरसस्तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः।।2।।
ॐ तस्मा ऽअरङ्गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ। आपो जनयथा च नः।।3।।

उसके बाद ‘सूर्यमुदीक्षस्व’ अर्थात् सूर्य को देखो, इस प्रकार आचार्य की आज्ञा के बाद कुमारॐतच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शत ˜ श्रृणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात्।। मन्त्र उच्चारण कर सूर्य की ओर देखे।
पुनः आचार्य माणवक के दाहिने कन्धे पर से अपने दाहिने हाथ द्वाराॐमम व्रते ते हृदयं दधामि। मम चित्तमनुचित्तं ते अस्तु। मम वाचमेकमना जुषस्व। बृहस्पतिष्ट्वा नियुनक्तु मह्यम्।। मन्त्र पढ़कर उसके हृदय का स्पर्श करे।

तत्पश्चात् आचार्य बटुक के दाहिने हाथ को पकड़कर उससे पूछते हैं को नामाऽसि ? ‘तुम्हारा क्या नाम है ?’ कुमार भी ‘अमुकशर्माऽहं भोः !’ इस प्रकार प्रत्युत्तर देता है। कस्य ब्रह्मचर्यसि ‘तुम किसके ब्रह्मचारी हो ?’ इस प्रकार आचार्य के कहने पर कुमार ‘भवतः’ अर्थात् आपका ही, इस प्राकर प्रत्युत्तर देता है। पुनः आचार्यॐइन्द्रस्य ब्रह्मचार्यस्यग्निराचार्यस्तवाहमाचार्यः ‘श्रीअमुकशर्मन्’। कुमार से मन्त्र कहते हैं।
पुनः आचार्यॐप्रजापतये त्वा परिददामि, इति प्राच्याम्।।1।।
ॐ देवाय त्वा सवित्रो परिददामि इति दक्षिणस्याम् ।।।2।।ॐ
अद्भ्यस्तत्त्वौषधीम्यां  परिददामि, इति प्रतीच्याम्।।3।।ॐद्यावापृथिवीभ्यां त्वा परिददामि, इत्युदीच्याम्।।4।।ॐविश्वेभ्यस्त्वा देवेभ्यः परिददामि,
इत्यधः।। 5।।ॐसर्वेभ्यस्त्वा परिददामि, इत्यूध्र्वम्। मन्त्र पढ़कर कुमार से सभी दिशाओं में उपस्थान (प्रणाम) करावे। उसके बाद अग्नि की प्रदक्षिणाकर आचार्य की दाहिनी ओर माणवक बैठे।
ब्रह्मवरण-पुनः आचार्य पुष्प, चन्दन, ताम्बूल एवं वó आदि वरण-सामग्री हाथ में लेकर ‘अद्य कर्तव्योपनयन-होमकर्मणि कृताऽकृतावेक्षणरूपब्रह्मकर्मकर्तुम् अमुकगोत्राममुकशर्माणं ब्राह्मणमेभिः पुष्प-चन्दन-ताम्बूल-वासोभिः ब्रह्मत्वेन त्वामहं वृणे। उच्चारण कर ब्रह्मा का वरण करें। ब्रह्मा भी ‘वृतोऽिस्म’ इस प्रकार कहें।
नोटः-अग्नि स्थापन के बाद शेष कुशकण्डिका एवं स्विष्टकृद् होम तक की विधि होम प्रकरण से करावें।
उसके बाद संश्रव प्राशन आचमन करॐसुमित्रिया नऽआपऽओषधयः सन्तु कहकर प्रणीता के जल से अपने ऊपर मार्जन करें।

दाहिने हाथ मे जल लेकर ‘अद्य कृतस्योपनयनहोमकर्मणोऽङ्गतया विहितम् इदं पूर्णपात्रां प्रजापतिदैवतममुकगोत्रायाऽमुकशर्मणे ब्राह्मणाय ब्रह्मणे दक्षिणां तुभ्यमहं सम्प्रददे।’ संकल्प-वाक्य उच्चारण कर भूमि में जल छोड़ दे। ब्रह्मा भी, ‘स्वस्ति’ तथाॐद्यौस्त्वा ददातु पृथिवी त्वा प्रतिगृह्णातु। इस मन्त्र भाग का उच्चारण करें।

अग्नि के पश्चिम भाग या ईशान कोण में ॐदुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु योऽस्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मः।। इस आधे मन्त्र को पढ़कर प्रणीतापात्रा भूमि पर उलट दे। उसके बाद उपयमन कुशाओं से ॐआपः शिवाः शिवतमाः शान्ताः शान्ततमास्तास्ते कृण्वन्तु भेषजम्।। इस मन्त्र भाग को पढ़कर भूमि पर गिरे हुए प्रणीता का जल यजमान के मस्तक पर सिंचन करे (छिड़के) और उन उपयमन कुशाओं को अग्नि में छोड़ दे।
आचार्य कुमार का अनुशासन करते हैं। वह इस प्रकार है-आचार्य कहे ब्रह्मचार्यसि। ब्रह्मचारी कहे भवामि। आचार्य-आपोऽशान। ब्रह्मचारी-अशानि। आचार्य-कर्म कुरू। ब्रह्मचारी-करवाणि। आचार्य-दिवा मा सुषुप्स्व। ब्रह्मचारी-न स्वपानि। आचार्य-वाचं यच्छ। ब्रह्मचारी-यच्छानि। आचार्य-अध्ययनं सम्पादय। ब्रह्मचारी-सम्पादयामि। आचार्य-समिधमाधेहि। ब्रह्मचारी-आदधामि। आचार्य-आपोऽशान। ब्रह्मचारी-अशानि। इस प्रकार आचार्य कुमार का अनुशासन करे।

गायत्री उपदेश-अग्नि के उत्तर की ओर पश्चिमाभिमुख बैठे हुए आचार्यके चरण एवं उनको (आचार्य को) ब्रह्मचारी भली-भाँति देखे। आचार्य भी बटुक को देखते हुए मांगलिक शंख तथा अन्य बाजे आदि को बन्द कर शुभ समय में आचार्य गायत्री का उपदेश करे। सर्व-प्रथम काँसेकी थाली में चावल फैलाकर सोने की शलाका से ॐकार पूर्वक गायत्री मन्त्र लिखे और संकल्प के साथ गायत्री आदि का पूजन करे। वह इस प्रकार है-
ब्रह्मचारी दाहिने हाथ में जल लेकर ‘अद्य पूर्वोच्चारित-ग्रहगुण- गणविशेषण-विशिष्टायां शुभपुण्यतिथौ, गोत्राः शर्माऽहं मम ब्रह्मवर्चससिद्धîर्थं वेदाध्ययनाधिकारार्थं च गायÿत्रयुपदेशाङ्गविहितं गायत्री-सावित्राी- सरस्वती’पूर्वकमाचार्यपूजनं करिष्ये।’ संकल्प-वाक्य पढ़कर भूमि पर जल डोड़ दे।

चावल फैले हुए काँसे की थाली में तीन सोपारी रखकर हाथ में चावल ले ॐता ˜ सवितुर्वरेण्यस्य चित्रामहं वृणे सुमतिं विश्वजन्याम्। यामस्य कण्वो ऽअदुहत्प्रपीना ˜ सहòधारा पयसा महीं गाम्।।1।। पर्यन्त मन्त्र तथा ‘ॐ गायÿत्रायै नमः, गायत्रीमावाहयामि’ तक पढ़कर पहली सोपारी पर अक्षत छिड़के। सवित्रा प्रसवित्रा सरस्वत्या वाचा त्वष्ट्रा रूपैः पूष्णा पशुभिरिन्द्रेणास्मे बृहस्पतिना ब्रह्मणा वरुणेनौजसाऽग्निना तेजसा सोमेन राज्ञा विष्णुना दशम्या देवताया प्रसूतः प्रसर्पामि।। ‘ॐ साविÿत्रयै नमः, सावित्राीमावाहयामि’ कहकर दूसरी सोपारी पर अक्षत छोड़े।ॐपावका नः सरस्वती व्वाजेभिर्वाजिनीवती। यज्ञं व्वष्टु
धियावसुः।। और ‘ॐ सरस्वत्यै नमः, सरस्वतीमावाहयामि’ उच्चारण कर तीसरी सोपारी पर अक्षत छिड़के।
पुनःॐबृहस्पते ऽअति यदर्यो ऽअर्हाद्युमद्विभाति क्रतुमज्जनेषु। यद्दीदयच्छवस ऽऋतप्रजा तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्राम्।।ॐगुरवे नमः, गुरुमावाहयामि।। 4।। पढ़कर आचार्य के ऊपर अक्षत छोड़े। फिर हाथ में अक्षत लेकर ‘ॐ मनो जूतिः0’ इस मन्त्र से गायत्री आदि पर अक्षत छिड़क कर प्रतिष्ठा करें। और गायत्री, सावित्राी, सरस्वती तथा गुरु का पंचोपचार से पूजन करे।

इस गायत्री मन्त्र के तीन भाग करे। प्रथम में केवल ॐकार का उच्चारण करे। द्वितीय भाग में आधा मन्त्र एवं तृतीय भाग में समस्त गायत्री का उपदेश करे। गायत्री मन्त्र-ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात् ॐ।। इसी प्रकार तीन बार गायत्री मन्त्र का बटुक के दाहिने कान में उपदेश करे। इस गायत्री मन्त्र के पहले और अन्त में प्रणव (ॐ) पूर्वक ‘स्वस्ति’ का उच्चारण करे।
इसी प्रकार आचार्य क्षत्रिय कुमार को त्रिष्टुप् सवित्रा गायत्री का, ओर वैश्य कुमार को जगती नाम की गायत्री का अथवा ब्राह्मण, क्षत्रिय ओर वैश्य तीनों को ब्रह्मगायत्री का उपदेश करें। इस प्रकार गायत्री उपदेश समाप्त।
उसके बाद ब्रह्मचारी आचार्य के दक्षिण एवं अग्नि के पश्चिम भाग में बैठकर घी में डुबोये हुए सूखे गोबर के कण्डे द्वारा पाँचों मन्त्रों से हवन करे।

ॐ अग्ने सुश्रवः सुश्रवसं मा कुरु ।। 1।। ॐयथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रवा ऽअसि ।। 2।।ॐएवं मा˜ सुश्रवः सौश्रवसं कुरु।। 3।।ॐयथा त्वमग्ने देवानां यज्ञस्य निधिपा ऽअसि।।4।।ॐएवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपो भूयासम्।। 5।।

उसके बाद जल द्वारा अग्नि के चारों ओर प्रदक्षिणा करे अर्थात् जल घुमावे। पुनः बटुक उठाकर घी लगे हुए तीन पलाश की समिधा (लकड़ी) लेकरॐअग्नये
समिधमाहार्यं बृहते जातवेदसे। यथा त्वमग्ने समिधा समिध्यस एवमहमायुषा मेधया वर्चसा प्रजया पशुभिब्र्रह्मवर्चसेन जीवपुत्रो ममाचार्यो
मेधाव्यहमसान्यनिराकरिष्णुर्यशस्वी तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्यन्नादो भूयास ˜ स्वाहा।। पढ़कर पहली समिधा अग्नि में छोड़ दे।

तथा उक्त मन्त्र से ही दूसरी एवं तीसरी समिधा का भी अग्नि में हवन करें।

पुनः घी में डुबाये हुए सूखे कण्डे सेॐअग्ने सुश्रवः सुश्रवसं मा कुरु ।। 1।। ॐयथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रवा ऽअसि ।। 2।।ॐएवं मा˜ सुश्रवः सौश्रवसं कुरु।। 3।।ॐयथा त्वमग्ने देवानां यज्ञस्य निधिपा ऽअसि।।4।।ॐएवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपो भूयासम्।। 5।। पाँच मन्त्र पढ़कर अग्नि में हवन करे।
उसके बाद अग्नि के चारों ओर जल घुमाकर दोनों हाथों की हथेली अग्नि में तपाकरॐतनूपा अग्नेऽसि तन्वं मे पाहि।। 1।।ॐआयुर्दा अग्नेऽस्यायुर्मे देहि।।2।।ॐवर्चोदा अग्नेऽसि वर्चो मे देहि।। 3।।ॐअग्ने यन्मे तन्वा ऊनं तन्म ऽआपृण।।4।।ॐमेधां मे देवः सविता आदधातु।।5।।ॐमेधां मे देवी सरस्वती आदधात।। 6।।ॐमेधामश्विनौ देवावाधत्तां पुष्पकरòजौ।।7।। सात मन्त्र द्वारा अपने मुख का स्पर्श करे।
पुनः ‘ॐ अङ्गानि च मऽआप्यायन्ताम्’ इस मन्त्र से दोनों हाथों की हथेली का मस्तक से लेकर पैर पर्यन्त सभी अंगों का स्पर्श करे। तदनन्तर दाहिने हाथ की पाँचों अँगुलियों के अग्रभाग सेॐवाक्च म ऽआप्यायताम्। इति मुखालम्भनम्।ॐप्राणश्च म आप्यायताम्। इति नासिकयोरालम्भनम्।ॐचक्षुश्च म ऽआप्यायताम्।
इति चक्षुषी युगपत्।ॐश्रोत्रां च म ऽआप्यायताम्। इति श्रोत्रायोः मन्त्रवृत्या।ॐयशोबलं च म ऽआप्यायताम्। इति बाह्नोरुपस्पर्शनम्। पर्यन्त मन्त्र उच्चारण कर मुख, दोनों नासिका के अग्रभाग, दोनों नेत्रा, दोनों कान और दोनों भुजाओं का स्पर्श करे।

त्रयायुषकरण-òुवा के मूलभाग से वेदी का भस्म लेकर त्रयायुष करे। वह इस प्रकार है-‘ॐ त्रयायुषं जमदग्नेः’ इति ललाटे। ‘ॐ कश्यपस्य त्रयायुषम्’ इति ग्रीवायाम्। ‘ॐ यद्देवेषु त्रयायुषम्’ इति दक्षिणबाहुमूले। ‘ॐ तन्नो ऽअस्तु त्रयायुषम् इति हृदि। मन्त्र पढ़कर मस्तक, ग्रीवा, दाहिने बाहु मूल और हृदय में भस्म लगावे।
तत्पश्चात् बटुक सीधे दोनों हाथ से पृथ्वी का स्पर्श करते हुए गोत्रा, प्रवर, नाम पूर्वक वैश्वानरादि का अभिवादन करे। वह इस प्रकार है-अमुकसगोत्राः अमुकप्रवरान्वितः अमुकशर्माऽहं भो वैश्वानर ! त्वामभिवादये। अमुकसगोत्राः अमुकप्रवरान्वितः अमुकशर्माऽहं भो वरुण ! त्वामभिवादये। अमुकसगोत्राः अमुकप्रवरान्वितः अमुकशर्माऽहं भो सूर्य ! त्वामभिवादये। अमुकसगोत्राः अमुकप्रवराऽन्वितः अमुकशर्माऽहं भो आचार्य !, भो अध्यापक !, भो गुरो! त्वामभिवादये। वाक्य कहकर बटुक वैश्वानर (अग्नि), वरुण, सूर्य एवं आचार्य को अभिवादन (प्रणाम) करे। आचार्य भी, अभिवादयस्व आयुष्मान् भव सौम्य श्रीअमुकशर्मन्!। पर्यन्त वाक्य कहे।






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भिक्षाचर्यचरण (भिक्षा माँगना)-बाँयें कन्धे पर पीले वó की झोली लटका कर सब से पहले माता के पास जाकर ‘भवति भिक्षां देहि’ (अर्थात् आप मुझे भिक्षा दें) यह वाक्य कहकर भिक्षा ग्रहण करे। भिक्षा लेने के बाद ब्रह्मचारी बटुक ‘ॐ स्वस्ति’ इस प्रकार कहे। क्षत्रिय-कुमार भिक्षा ग्रहण के समय ‘भिक्षां देहि भवति’ यह वाक्य कहे। माता के द्वारा दी हुई सभी भिक्षा आचार्य को प्रदान करे। उसी प्रकार अन्य कुटुम्बी जनों (चाचा, चाची, मामा, मामी, बुआ आदि को) से भिक्षा ग्रहण करे। आचार्य द्वारा ‘भिक्षा ग्रहण करो’ इस प्रकार आज्ञा प्राप्त होने पर अन्य कुटुम्बी जनों की भिक्षा बटुक ग्रहण करे। किन्हीं आचार्यों के मत में भिक्षा ग्रहण के पश्चात्प्रथम वेदी में पूर्णाहुति का विधान है।

नियमोपदेश-उसके बाद आचार्य ब्रह्मचारी बटुक को  अधःशायी स्यात्। अक्षारलवण-शी स्यात्। दण्डकृष्णाजिनं च धारणम्। अरण्यात् स्वयं प्रशीर्णाः समिध आहरणम्। सायंप्रातः सन्ध्योपासनपूर्वकं परिसमूहनादि-त्रयायुषकरणान्तं यथोक्तं कर्म कर्तव्यम्। गुरुशुश्रूषा कर्तव्या। सायं प्रातर्भोजनार्थे
जनसन्निधाने वारद्वयं भिक्षाचरणं कर्तव्यम्। मधुमांसाऽशनं न कर्तव्यम्। मज्जनं न कर्तव्यम्।
कुशासनोपरि मसूरिकादि उपधानं कृत्वा नोपविशेत्। óीणां मध्ये अवस्थानं न कर्तव्यम्। अनृतं न वक्तव्यम्। अदत्तं न गृह्णीयात्। स्मृत्यन्तरोक्ता यम-नियमा अनुष्ठेयाः। परिधानवóं क्षालनं विना न दधीत। भग्नं सुसंल्लग्नितं विकृतं वóं न दधीत। उदयास्तसमये भास्करावलोकनं न कुर्यात्। शुष्कवदनं परिवादादि वर्जयेत्। पर्युषितमन्नं च न भक्षयेत्। कांस्या-ऽऽयस-वङ्ग-मृत्पात्रो भोजनं तेन पानं च न कुर्यात्। ताम्बूलभक्षणं न कुर्यात्। अभ्यङ्गमक्ष्णोरञ्ज- नमुपानच्छत्रादर्शं च वर्जयेत्। ब्रह्मचारी के नियम पालन करने का उपदेश दे। भूमि पर शयन करना। खारी एवं चटपटी (चाट, पकौड़ी) आदि वस्तु सेवन न करे। दण्ड एवं मृगचर्म धारण करे। जंगल से स्वयं गिरी हुई  समिधा ग्रहण करे। सायंकाल एवं प्रातः समय परिसमूहन लेकर त्रयायुष पर्यन्त वेदी के समस्त कार्य सम्पादित करे। गुरु की सेवा करे। सायंकाल एवं प्रातः समय अपने भोजन निमित्त गृहस्थ के घर से दो बार भिक्षा माँग ले आवे। मद्य-मांस आदि सेवन न करें जल को उछाल कर स्नान न करे।

कुश के आसन पर रूई के गद्दे आदि बिछाकर न बैठे। óियों के मध्य न बैठे। मिथ्या भाषण न करे। बिना दिये हुए दूसरे की वस्तु ग्रहण न करे। धर्मशाó के अनुसार यम-नियम-निदिध्यासन आदि नियमों का पालन करे। पहने हुए वó को दूसरे दिन बिना धोये धारण न करे। फटे, दूसरे वó से जोड़े (पिंउदा लगे) हुए, और निकृष्ट वó (बिना कच्छके लुंगी आदि) धारण न करे। उदय और अस्त के समय सूर्य को न देखे। बासी एवं सड़े हुए अन्न भोजन न करे। काँसे, लोहे, राँगे एवं मिट्टी के बरतन में भोजन न करे तथा भोजन किये हुए पात्रा में जल न पीये। पान न खाये। उबटन, आँख में अंजन, जूता, छाता और शीशा का परित्याग करे। इतने नियम ब्रह्मचारी को करना चाहिए।

उस दिन ब्रह्मचारी मौन होकर दिन बितावे। उसके बाद सायंकाल की सन्ध्या कर वेदी की अग्नि में प्रातः कालीन कृत्य के समान पर्युक्षण एवं परिसमूहन कार्य कर मौन का परित्याग करे। (परिसमूहन के बाद अग्नि में सूखी लकड़ी डाल दे) तथा प्रतिदिन सन्ध्या वन्दनादि कार्य (जब तक ब्रह्मचर्य व्रत धारण करे तब तक) नियम पूर्वक करें। अथवा कम से कम तीन दिन तक ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करें। कृतस्योपनयनकर्मणः साङ्गतासिद्धîर्थं दशसंख्याकान् ब्राह्मणान् भोजयिष्ये।
पुनः हाथ में जल लेकर कृतस्योपनयन-कर्मणः साङ्गतासिद्धîर्थम् आचार्याय दक्षिणां दातुमहमुत्सृजे। भूयसी-दक्षिणां च दातुमहमुत्सृजे। संकल्प वाक्य पढ़कर भूमि में जल छोड़ दें।
यह श्लोक पढ़कर क्षमा प्रार्थना करें।

                           प्रमादात्  कुर्वतां  कर्म  प्रच्यवेताध्वरेषु   यत्।
                        स्मरणादेव तद्-विष्णोः सम्पूर्णं स्यादिति श्रुतिः।।


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